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________________ बारहवां अध्ययन : हरिकेशीय [205 46. धम्मे हरए बंभे सन्तितित्थे अणाविले अत्तपसनलेसे / ___ हिसि हाओ विमलो विसुद्धो सुसीइभूओ पजहामि दोसं // 146] (मुनि-) अनाविल (-अकलुषित) और आत्मा की प्रसन्न-लेश्या वाला धर्म मेरा ह्रदजलाशय है, ब्रह्मचर्य मेरा शान्तितीर्थ है; जहाँ स्नान कर मैं विमल, विशुद्ध और सुशान्त (सुशीतल) हो कर कर्मरूप दोष को दूर करता हूँ। 47. एयं सिणाणं कुसलेहि दिळं महासिणाणं इसिणं पसत्थं / जहिसि व्हाया विमला विसुद्धा महारिसी उत्तम ठाण पत्ते // -त्ति बेमि / [47] इसी (उपर्युक्त) स्नान का कुशल (तत्त्वज्ञ) पुरुषों ने उपदेश दिया (बताया) है। ऋषियों के लिए यह महास्नान ही प्रशस्त (प्रशंसनीय) है। जिस धर्मह्रद में स्नान करके विमल और विशुद्ध हुए महर्षि उत्तम स्थान को प्राप्त हुए हैं / ____-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–सोहि-शुद्धि-शोधि का अर्थ है-निर्मलता / वह दो प्रकार की है-द्रव्यशुद्धि और भावशुद्धि / पानी से मलिन वस्त्र आदि धोना द्रव्यशुद्धि है तथा तप, संयम आदि के द्वारा अष्टविध ममल को धोना भावशुद्धि है। इसीलिए मुनि ने रुद्रदेव आदि ब्राह्मणों से कहा था-~-जल से बाह्य (द्रव्य) शुद्धि को क्यों ढूंढ रहे हैं !' कठिन शब्दों के अर्थ--कुसला--तत्त्वविचार में निपुण। उदयं फुसंता-आचमन आदि में जल का स्पर्श करते हुए। पाणाइं-द्वीन्द्रिय आदि प्राणी। भूयाइं-वृक्ष, उपलक्षण से अन्य वनस्पतिकायिक जीवों और पृथ्वोकायिक प्रादि एकेन्द्रिय का ग्रहण करना चाहिए। विहेडयंतिविशेषरूप से, विविध प्रकार से विनष्ट करते हैं। परिण्णाय--ज्ञपरिज्ञा से इनका स्वरूप भलीभांति जान कर, प्रत्याख्यानपरिज्ञा से परित्याग करके / सुसंवुडो-जिसके प्राणातिपात प्रादि पांचों अाश्रवद्वार रुक गए हों, वह सुसंवृत है / वोसट्टकाओ-व्युत्सृष्टकाय-विविध उपायों से या विशेष रूप से परोषहों एवं उपसर्गों को सहन करने के रूप में, काया का जिसने व्युत्सर्ग कर दिया है / सुइचत्तदेहो—जो शुचि है, अर्थात्---निर्दोष व्रतवाला है तथा जो अपने देह की सार-संभाल नहीं करने के कारण देहाध्यास का त्याग कर चुका है। कुशलपुरुषों द्वारा अभिमत शुद्धि-कुशल (तत्त्वविचारनिपुण पुरुष कर्ममलनाशात्मिका) तात्त्विक शुद्धि को ही मानते हैं। ब्राह्मणसंस्कृति को मान्यतानुसार यूपादिग्रहण एवं जलस्पर्श यज्ञस्नान में अनिवार्य है और इस प्रक्रिया में प्राणियों का उपमर्दन होता है, इसीलिये सब शुद्धि-प्रक्रियाएँ कर्ममल के उपचय की हेतु हैं। इसलिए ऐसे प्राणिविनाश के कारणरूप शुद्धिमार्ग को तत्त्वज्ञ कैसे सुदष्ट (सम्यक् ) कह सकते हैं ! वाचक उमास्वाति ने कहा है शौचमाध्यात्मिकं त्यक्त्वा, भावशुद्धयात्मकं शुभम् / जलादिशौचं यत्रेष्टं, मूढविस्मापकं हि तत् // 1. उत्तरा. चूणि, पृ. 211 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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