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________________ 12] [उत्तराध्ययनसूत्र आइण्णे--पाकीर्ण का अर्थ है--विनीत या प्रशिक्षित अश्व / आकीर्ण, विनीत और भद्रक ये तीन शब्द विनीत घोड़े और बैल के अर्थ में समानार्थक हैं।" दुरासयं-दो अर्थ--(१) दुराशय (दुष्ट प्राशय वाले) और (2) दुराश्रय अत्यन्त क्रोधी होने के कारण दुःख से बड़ी मुश्किल से) पाश्रय पाने वाले (ठिकाने आने वाले शान्त होने वाले) गुरु को। अतिक्रोधी चण्डरुद्राचार्य का उदाहरण-उज्जयिनी नगरी के बाहर उद्यान में एक बार चण्डरुद्राचार्य सशिष्य पधारे / एक नवविवाहित युवक अपने मित्रों के साथ उनके पास आया और कहने लगा-'भगवन् ! मुझे संसार से तारिये !' उसके साथी भी कहने लगे—'यह संसार से विरक्त नहीं हुआ है, यह आपको चिढ़ा रहा है।' इस पर चण्डरुद्राचार्य क्रोधावेश में आ कर कहने लगे--'ले प्रा, तुझे दीक्षा देता हूँ।' यों कह कर उसका मस्तक पकड़ कर झटपट लोच कर दिया / __ आचार्य द्वारा उक्त युवक को मुण्डित करते देख, उसके साथी खिसक गए। नवदीक्षित शिष्य ने कहा-'गुरुदेव ! अब यहाँ रहना ठीक नहीं है, अन्यत्र विहार कर दीजिए, अन्यथा यहाँ के परिचित लोग आ कर हमें तंग करेंगे।' अतः प्राचार्य ने मार्ग का प्रतिलेखन किया और शिष्य के अनुरोध पर उसके कंधे पर बैठ कर चल पड़े। रास्ते में अंधकार के कारण रास्ता साफ न दिखने से शिष्य के पैर ऊपर नीचे पड़ने लगे। इस पर चण्डरुद्र प्राचार्य कुपित हुए और शिष्य को भला-बुरा कहने लगे। पर शिष्य ने समभावपूर्वक गुरु के कठोर वचन सहे / सहसा एक खड्डे में पैर पड़ने के कारण गुरु ने मुण्डित सिर पर डंडा फटकारा, सिर फूट गया, रक्त की धारा बह चली, फिर भी शिष्य ने शान्ति से सहन किया, कोमल वचनों से गुरु को शान्त करने का प्रयत्न किया। इस उत्कृष्ट क्षमा के फलस्वरूप उच्चतमभावधारा के साथ शिष्य को केवलज्ञान हो गया। केवलज्ञान के प्रकाश में अब उसके पैर सीधे पड़ने लगे। फिर भी गुरु ने व्यंग में कहा-'दुष्ट ! डंडा पड़ते ही सीधा हो गया। अब तुझे रास्ता कैसे दीखने लगा?' उसने कहा-'गुरुदेव ! आपकी कृपा से प्रकाश हो गया।' इससे चण्डरुद्राचार्य के परिणामों की धारा बदली। वे केवलज्ञानी शिष्य की अशतना एवं इतने कठोर प्रताडन के लिए पश्चात्तापपूर्वक क्षमायाचना करने लगे। शिष्य पर प्रसन्न हो कर उसकी नम्रता, क्षमा, समता और सहिष्णुता की प्रशंसा करने लगे। इसी प्रकार जो शिष्य विनीत हो कर गुरु के वचनों को सहन करता है, वह अतिक्रोधी गुरु को भी चण्डरुद्र की तरह प्रसन्न कर लेता है / --उत्तराध्ययननियुक्ति, गा, 64 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 48 (ख) 'आइन्ने य बिणीए भद्दए वावि एगट्ठा।' 2. वृहद्वृत्ति, पत्र 48 3. बृहद्वत्ति, पत्र 49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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