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________________ नियुक्ति, भाष्य और चणि साहित्यों का तो अपनी टीकाओं में प्रयोग किया ही है साथ ही नये-नये हेतुओं द्वारा विषय को और अधिक पुष्ट बनाया है। टीकाओं के अध्ययन और परिशीलन से उस युग की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और भौगोलिक परिस्थितियों का भी सम्यक् परिज्ञान हो जाता है। टीकाकारों में सर्वप्रथम टीकाकार जिनभंद्रगणी क्षमाश्रमण हैं। उन्होंने अपने विशेषावश्यकभाष्य पर स्वोपज्ञ वत्ति लिखी पर यह वृत्ति वे अपमे जीवनकाल में पूर्ण नहीं कर सके / वे छठे गणधर व्यक्त तके ही टीका लिख सके / उनकी शैली सरल, सरस और प्रसादगुण युक्त थी। उनकी प्रस्तुत टीका उनके पश्चात् कोट्याचार्य ने पूर्ण की। इसका संकेत कोटयाचार्य ने छठे गणधरवाद के अन्त में दिया है। संस्कृत टीकाकारों में प्राचार्य हरिभद्र का नाम गौरब के साथ लिया जा सकता है। वे संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनका सत्ता-समय विक्रम संवत् 757 से 827 का है। उन्होंने आवश्यकनियुक्ति पर भी वृत्ति लिखी किन्तु अावश्यकचणि के पदों का उसमें अनुसरण न करके स्वतन्त्र रूप से विषय का प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत वृत्ति को देखकर विज्ञों ने यह अनुमान किया है कि आचार्य हरिभद्र ने आवश्यकसूत्र पर दो वृत्तियां लिखी थीं। वर्तमान में जो टीका उपलब्ध नहीं है, वह टीका उपलब्ध टीका से बड़ी थी। क्योंकि आचार्य ने स्वयं लिखा है—'व्यासार्थस्तु विशेषविवरणादवगन्तव्य इति / ' अन्वेषणा करने पर भी यह टीका अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी है। वृत्ति में ज्ञान का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए आभिनिबोधिक ज्ञान का छह दष्टियों से विवेचन किया है। श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान को भी भेद आदि की दृष्टि से विवेचन किया है। सामायिक आदि के तेवीस द्वारों का विवेचन नियुक्ति के अनुसार किया गया है। सामायिक के निर्गम द्वार में कुलकरों के प्रति और उनके पूर्व भवों के सम्बन्ध में सूचन किया है। नियुक्ति और चणि में जिन विषयों का संक्षेप में संकेत किया गया है उन्हीं का इसमें विस्तार किया गया है। ध्यान के प्रसंग में ध्यानशतक की समस्त गाथाओं पर भी विवेचन किया है। परिस्थापनाविधि पर प्रकाश डालते हुए सम्पूर्ण परिस्थापना सम्बन्धी नियुक्ति के पाठ को उद्ध त किया गया है। प्रस्तुत वृत्ति में प्राकृत भाषा में दृष्टान्त भी विषय को स्पष्ट करने के लिये दिये गये हैं। इस वृत्ति का नाम शिष्यहिता है। इसका ग्रन्थमान 22000 श्लोकप्रमाण है / लेखक ने अन्त में अपना संक्षेप में परिचय भी दिया है। कोट्याचार्य ने आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अपूर्ण स्वोपज्ञ भाष्य को पूर्ण किया और विशेषावश्यकभाष्य पर भी एक नवीन वृत्ति लिखी। पर लेखक ने उस वृत्ति में आचार्य हरिभद्र का कहीं पर भी उल्लेख नहीं किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि वे हरिभद्र के समकालीन या पूर्ववर्ती होंगे। कोटघाचार्य ने जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का श्रद्धास्निग्ध स्मरण किया है। मलधारी आचार्य हेमचन्द्र ने अपनी विशेषावश्यकभाष्यवृत्ति में कोट्याचार्य का प्राचीन टीकाकार के रूप में उल्लेख किया है। प्रभावक चरित्रकार ने आचार्य शीलाङ्क को और कोटयाचार्य को एक माना है / परन्तु शीलाङ्क और कोट्याचार्य दोनों के समय एक नहीं हैं / कोट्याचार्य का समय विक्रम की आठवीं शती है तो शीलाङ्क का समय विक्रम की नौवीं दशमी शती है। अतः वे दोनों पृथक-पृथक हैं। कोट्याचार्य का प्रस्तुत विशेषावश्यकभाष्य पर जो विवरण है वह न तो अतिसंक्षिप्त है और न अतिविस्तृत ही है। विवरण में जो कथाएं उट्ट कित की गई हैं, वे प्राकृत भाषा में हैं। विवरण का ग्रन्थमान 13700 श्लोक प्रमाण है। प्राचार्य मलयगिरि उत्कृष्ट प्रतिभा के धनी मूर्धन्य मनीषी थे। उन्होंने आगमग्रन्थों पर बहुत ही महत्त्वपूर्ण टीकाएं लिखी हैं। उन टीकाओं में उनका प्रकाण्ड पाण्डित्य स्पष्ट रूप से झलकता है। विषय की महनता, भाषा की प्रांजलता, शैली का लालित्य एवं विश्लेषण की स्पष्टता उनकी विशेषताएँ हैं। वे प्रागमसाहित्य के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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