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________________ उस प्रश्न पर आवश्यकसूत्र में चिन्तन करते हुए लिखा है-संयमी जीवन को अधिकाधिक परिष्कृत करने के लिये, आत्मा को माया, मिथ्यात्व और निदान शल्य से मुक्त करने के लिये, पाप कर्मों के निर्यात के लिये कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग में काय और उत्सर्ग- ये दो शब्द हैं / जिसका तात्पर्य है--काय का त्याग / पर जीवित रहते हुए शरीर का त्याग सम्भव नहीं है / यहाँ पर शरीरत्याग का अर्थ है—शारीरिक चंचलता और देहासक्ति का त्याग / साधक कुछ समय तक संसार के भौतिक पदार्थों से अलग-थलग रहकर आत्मस्वरूप में लीन होता है। कायोत्सर्ग अन्तर्मुखी होने की एक पवित्र साधना है। बहिर्मुखी स्थिति से साधक अन्तर्मुखी स्थिति में पहुंचता है और अनासक्त बनकर राग-द्वेष से ऊपर उठ जाता है। कायोत्सर्ग से शारीरिक ममता कम हो जाती है। शरीर की ममता साधना के लिये सबसे बड़ी बाधा है। कायोत्सर्ग में शरीर की ममता कम होने से साधक शरीर को सजाने-संवारने से हटकर आत्मभाव में लीन रहता है। यही कारण है कि साधक के लिये कायोत्सर्ग दुःखों का अन्त करने वाला बताया गया है। साधक जो भी कार्य करे, उस कार्य के पश्चात् कायोत्सर्ग करने का विधान है, जिससे वह शरीर की ममता से मुक्त हो सके। षडावश्यक में कायोत्सर्ग को स्वतंत्र स्थान दिया गया है। जो इस भावना को अभिव्यक्त करता है कि प्रत्येक साधक को प्रातः और संध्या के समय यह चिन्तन करना चाहिये कि यह शरीर पृथक् है और मैं पृथक हूँ। मैं अजर, अमर, अविनाशी हूँ। यह शरीर क्षणभंगुर है / कमल-पत्र पर पड़े हुए प्रोसबिन्दु की तरह यह शरीर कब नष्ट हो जाये, कहा नहीं जा सकता। शरीर के लिये मानव अकार्य भी करता है। शरीर के पोषण हेतु भक्ष्य-अभक्ष्य का भी विवेक नहीं रख पाता / कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर की ममता कम की जाती है। कायोत्सर्ग में जव साधक अवस्थित होता है तब डांस, मच्छरों के व सर्दी-गर्मी के कैसे भी उपसर्ग क्यों न हों, वह शान्त भाव से सहन करता है। वह देह में रहकर भी देहातीत स्थिति में रहता है / आचार्य धर्मदास ने उपदेशमाला ग्रन्थ में लिखा है कि कायोत्सर्ग के समय प्रावरण नहीं रखना चाहिये। कायोत्सर्ग में साधक चट्टान की तरह पूर्ण रूप से निश्चल, निस्पन्द होता है / जिनमुद्रा में वह शरीर का ममत्व त्याग कर आत्मभाव में रमण करता है। प्राचार्य भद्रबाहु ने लिखा है-कायोत्सर्ग की स्थिति में साधक को यदि कोई भक्तिभाव से चन्दन लगाये या कोई द्वेषपूर्वक बसूले से शरीर का छेदन करे, चाहे उसका जीवन रहे अथवा मृत्यु का वरण करना पड़े—वह सब स्थितियों में सम रहता है। तभी कायोत्सर्ग विशुद्ध होता है। कायोत्सर्ग के समय देव, मानव और तिर्यञ्च सम्बन्धी सभी प्रकार के उपसर्ग उपस्थित होने पर जो साधक उन्हें समभाब पूर्वक सहन करता है, उसी का कायोत्सर्ग वस्तुतः सही कायोत्सर्ग है।" आचार्य भद्रबाह ने कायोत्सर्ग के साधकों के लिये जिन तथ्यों का प्रतिपादन किया है, वे साधक के अन्तर्मानस में बल का सञ्चार करते हैं और वे रढता के साथ कायोत्सर्ग में तल्लीन हो जाते हैं किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि वह मिथ्याग्रह के चक्कर में पड़कर अपने जीवन को होम दे / क्योंकि सभी साधकों की स्थिति 79. तस्स उत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं पावागं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं / -अावश्यकसूत्र 80. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 1548 81. तिविहाणुवसग्गाणं माणुसाण तिरियाणं / सम्ममहियासणाए काउस्सग्गो हवइ सुद्धो / / आवश्यकनियुक्ति, गाथा 1549 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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