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________________ धम्मपद५५ में तथागत बुद्ध ने कहा-पुण्य की इच्छा से जो व्यक्ति वर्ष भर में यज्ञ और हवन करता है, उस यज्ञ और हवन का फल पुण्यात्माओं के अभिवादन के फल का चतुर्थ भाग भी नहीं है। अतः सरल मानस वाले महात्माओं को नमन करना चाहिये / सदा बृद्धों की सेवा करने वाले और अभिवादनशील पुरुष की चार वस्तुएं वद्धि को प्राप्त होती हैं-आयु, सौन्दर्य, सुख और बल / 56 इस प्रकार बौद्धधर्म में बन्दन को महत्त्वदिया है। वहाँ पर भी श्रमणजीवन की वरिष्ठता और कनिष्ठता के आधार पर वन्दन की परम्परा रही है / वैदिक परम्परा में भी वन्दन सद्गुणों की वृद्धि के लिये आवश्यक माना है / 57 श्रीमद्भागवत में नवधा भक्ति का उल्लेख है / 58 उस नवधा भक्ति में बन्दन भी भक्ति का एक प्रकार बताया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय में "मां नमस्कूरु" कहकर श्रीकृष्ण ने वन्दन के लिये भक्तों को उत्प्रेरित किया है। जैन मनीषियों ने वन्दन के सम्बन्ध में बहुत ही विस्तार से और गहराई से चिन्तन किया है। आचार्य भद्रबाह ने वन्दन के 32 दोष बताये हैं। उन दोषों से बचने वाला साधक ही सही बन्दन कर सकता है। संक्षेप में वे दोष इस प्रकार हैं 1. अनादत 2. स्तब्ध 3. प्रविद्ध 4. परिपिण्डित 5. टोलगति 6. अंकुश 7. कच्छपरिगत 8. मत्स्योद्वत्त 9. मनसाप्रद्विष्ट 10. वेदिकाबद्ध 11. भय 12. भजमान 13. मैत्री 14. गौरव 15. कारण 16. स्तन्य 17. प्रत्यनीक 18 रुष्ट 19. तजित 20, शठ 21. हीलित 22. विपरिकुचित 23. दृष्टादृष्ट 24 शृंम 25. कर 26. मोचन 27. आश्लिष्ट-अनाश्लिष्ट 28. ऊन 29. उत्तरचूडा 30. मूक 31. ढड्डर 32. चुडली / सार यह है कि वन्दन करते समय अन्तर्मानस में किसी प्रकार की स्वार्थभावना / आकांक्षा / भय या किसी के प्रति अनादर की भावना नहीं होनी चाहिये / जिनको हम वन्दन करें उनको हम योग्य सम्मान प्रदान करें। मन, वचन और काया तीनों ही वन्दनीय के चरणों में नत हों। प्रतिक्रमण भारतवर्ष की सभी अध्यात्मवादी धर्म-परम्पराएं आत्मसाधना की प्रबल प्रेरणा प्रदान करती हैं। आत्मा में अनन्त काल से प्रमाद और असावधानी के कारण विकार और वासनाएं अपना प्रभुत्व जमाए हुए हैं। उन्हें हटाकर ईश्वरत्व को जगाना है / मानव में जो पशुत्व वृत्ति है, वह स्वयं उसकी नहीं अपित बाहर से आई हई है। साधक की आत्मा घनघोर घटाओं से घिरे हुए सूर्य के सदश है / कर्मों की काली घटाओं के कारण आत्मा का परम तेज दिखाई नहीं दे रहा है। वह अपने-आप को दीन-हीन समझ रहा है। भूतकाल में जो अज्ञान और 55. धम्मपद, 108 56. धम्मपद, 109 57. मनुस्मृति, 2 / 121 58. श्रीमद्भागवत पुराण 7 / 5 / 23 59. श्रीमद्भगवद्गीता 18 / 65 60. (क) आवश्यकनियुक्ति 1207-1211 (ख) प्रवचनसारोद्धार वन्दनाद्वार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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