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________________ 120] [आवश्यकसूत्र दिन का विचार न रखकर पात्र लिए घ मने लगा। कल्पसूत्र की टीकाओं में उक्त उदाहरण प्राता है, अतः अभिग्रह करते समय अपनी शक्ति का विचार अवश्य कर लेना चाहिये। 10. निविकृतिक सूत्र निम्विगइयं पच्चक्खामि, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, निहत्थसंसिट्ठणं, उक्खित्तविवेगेणं, पडुच्चमक्खिएणं, महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरामि / भावार्थ—मैं विकृतियों का प्रत्याख्यान करता हूँ। अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, गृहस्थसंसृष्ट, उत्क्षिप्तविवेक, प्रतीत्यम्रक्षित, पारिष्ठापनिक, महत्तराकार और सर्वसमाधिप्रत्ययाकार इन नौ प्रागारों के सिवाय विकृति का परित्याग करता हूँ। विवेचन-मन में विकार उत्पन्न करने वाले भोज्य पदार्थों को विकृति कहते हैं'मनसो विकृतिहेतुत्वाद् विकृतयः' प्राचार्य हेमचन्द्र-कृत योगशास्त्रवृत्ति (तृतीय प्रकाश)। विकृति में दूध, दही, मक्खन, घी, तेल, गुड़, मधु आदि भोज्य पदार्थ सम्मिलित हैं / भोजन का वास्तविक उद्देश्य है शरीर और साथ ही मन को सबल बनाना। मन की सबलता से तात्पर्य है उसे शुद्ध अर्थात् दोष रहित रखना। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है। किंतु इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि मन के स्वस्थ न रहने पर भी काफी सीमा तक, जिसे हम केवल शारीरिक स्वस्थता कहते हैं, वह बनी रहती है / पर उससे आत्मा को कोई लाभ नहीं होता बल्कि हानि ही होती है / अतः आवश्यक है कि शरीर को ऐसी शुद्ध खुराक दी जाए जिससे शरीर भी स्वस्थ रहे और मन भी तथा इन दोनों की शुद्धता से प्रात्मा उन्नत हो सके। इसलिए शास्त्रकारों ने बतलाया है कि भोजन में सात्त्विकता रखनी चाहिये / विकारजनक भोजन संयम को दूषित किए बिना नहीं रह सकता। निविकृति के नौ आगार हैं / आठ प्रागारों का वर्णन तो पहले के पाठों में यथास्थान प्रा चुका है। 'प्रतीत्य म्रक्षित' नामक आगार नया है / भोजन बनाते समय जिन रोटी आदि पर सिर्फ उंगली से घी आदि चुपड़ा गया हो ऐसी वस्तुओं को ग्रहण करना, प्रतीत्यम्रक्षित आगार कहलाता है / इस प्रागार का यह भाव है कि घ त आदि विकृति का त्याग करने वाला साधक धारा के रूप में घृत आदि नहीं खा सकता है। घी से अत्यल्प रूप में चुपड़ी हुई रोटियां खा सकता है। _ 'प्रतीत्य सर्वथा रूक्षमण्डकादि, ईषत्सौकुमार्य प्रतिपादनाय यदंगुल्या ईषद् घृतं गृहीत्वा प्रक्षितं तदा कल्पते, न तु धारया।' * - देवेन्द्र प्रतिक्रमणवृत्ति, तिलकाचार्य ११.प्रत्याख्यान पारणा-सूत्र उग्गए सूरे नमुक्कार-सहियं पच्चक्खाणकयं / तं पच्चक्खाणं सम्मं कारणं फासियं, पालियं, तोरियं, किट्टियं, सोहियं, पाराहियं / जं च न पाराहियं, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / भावार्थ-सूर्योदय होने पर जो नमस्कार सहित या "प्रत्याख्यान किया था, वह प्रत्याख्यान (मन, वचन) शरीर के द्वारा सम्यक रूप से स्पृष्ट, पालित, शोधित, तीर्ण, कीर्तित एवं पाराधित किया और जो सम्यक् रूप से पाराधित न किया हो, उसका दुष्कृत मेरे लिए मिथ्या हो / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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