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________________ . 116] [आवश्यकसूत्र भावार्थ--एकाशन रूप एकस्थान व्रत को ग्रहण करता हूँ / अशन, खादिम और स्वादिम तीनों प्रकार के आहार का प्रत्याख्यान करता हूँ। (1) अनाभोग, (2) सहसाकार, (3) सागारिकाकार, (4) गुर्वभ्युत्थान, (5) पारिष्ठापनिकाकार, (6) महत्तराकार और (7) सर्वसमाधि-प्रत्ययाकार-उक्त सात प्रागारों के सिवा पूर्णतया आहार का त्याग करता हूँ। विवेचन-यह एकस्थान का सूत्र है / एकस्थानान्तर्गत 'स्थान' शब्द 'स्थिति' का वाचक है / अतः एक स्थान का फलितार्थ है—'दाहिने हाथ एवं मुख के अतिरिक्त शेष सब अंगों को हिलाए बिना, दिन में एक ही प्रासन से और एक ही बार भोजन करना / अर्थात् भोजन प्रारंभ करते समय जो स्थिति, जो अंगविन्यास हो, जो आसन हो, उसी स्थिति, अंगविन्यास एवं प्रासन से भोजन की समाप्ति तक बैठे रहना चाहिए।' प्राचार्य जिनदास ने आवश्यकचूणि में एक स्थान की यही परिभाषा की है—'एकट्ठाणे जं जथा अंगुवंगं ठवियं तहेव समुद्दिसितव्वं, आगारे से आउंटणपसारणं नत्थि, सेसा सत्त तहेव / ' एक स्थान की अन्य विधि सब 'एकाशन' के समान है। केवल हाथ, पैर आदि के आकुचनप्रसारण का प्रागार नहीं रहता। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में 'माउंटणपसारणेणं' का उच्चारण नहीं किया जाता है। 6. प्राचाम्ल-आयंबिलप्रत्याख्यानसूत्र आयंबिलं पच्चक्खामि, अन्नत्थऽणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, उक्खित्तविवेगेणं, गिहिसंस?णं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिबत्तियागारेणं वोसिरामि / भावार्थ-आयंबिल अर्थात् प्राचाम्ल तप ग्रहण करता हूँ / अनाभोग, सहसाकार, लेपालेप, उत्क्षिप्तविवेक, गृहस्थसंसृष्ट, पारिष्ठापनिकाकार, महत्तराकार, सर्वसमाधिप्रत्ययाकार-उक्त आठ आकार अर्थात् अपवादों के अतिरिक्त अनाचाम्ल आहार का त्याग करता हूँ। विवेचन-आचाम्ल व्रत में दिन में एक बार रूक्ष, नीरस एवं विकृति-रहित आहार ही ग्रहण किया जाता है, दूध, दही, घी, तेल, गुड़, शक्कर. पक्वान्न प्रादि किसी भी प्रकार का स्वादु भोजन, आचाम्ल-व्रत में ग्रहण नहीं किया जा सकता। प्राचीन प्राचारग्रन्थों में चावल, उड़द अथवा सत्तू आदि में से किसी एक के द्वारा ही आचाम्ल करने का विधान है। __ एकाशन और एकस्थान की अपेक्षा आयंबिल का महत्त्व अधिक है। एकाशन और एकस्थान में तो एक बार के भोजन में यथेच्छ सरस आहार भी ग्रहण किया जा सकता है, परन्तु आयंबिल के एक बार के भोजन में तो केवल उबले हुए उड़द के बाकले आदि लवण रहित, नीरस आहार ही ग्रहण किया जाता है। भावार्थ यह है कि प्राचाम्ल तप में रसलोलुपता पर विजय प्राप्त करने का महान् प्रादर्श है / जिह्वन्द्रिय का संयम, एक बहुत बड़ा संयम है। आयंबिल भी साधक की इच्छानुसार चतुविधाहार एवं त्रिविधाहार किया जाता है / चतुर्विधाहार करना हो तो 'चउव्विहं पि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं' बोलना चाहिए और त्रिविध में पाणं नहीं बोलना चाहिये / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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