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________________ 104] [आवश्यकसूत्र 11. यंत्रपीडन-कम-तिल, ईख, सरसों और एरंड आदि को पोलने का तथा रह्ट आदि चलाने का धंधा करना, तिलादि देकर तेल लेने का धंधा करना और इस प्रकार के यंत्रों को बनाकर आजीविका चलाना 'यंत्रपीडन-कर्म' कहलाता है। 12. निर्लाछन-कर्म जानवरों को नाक बींधना-नत्थी करना, प्रांकना-डाम लगाना, बधिया-खस्सी करना, ऊट आदि की पीठ गालना और कान तथा गल-कंबल का हेदन करना 'निलांछन-कर्म' कहा गया है। 13. असती-पोषण-कर्म-मैना, तोता, बिल्ली, कुत्ता, मुर्गा एवं मयूर को पालना, दामी का पोषण करना किसी को दास-दासी बनाकर रखना और पैसा कमाने के लिए दुश्शील स्त्रियों को रखना 'असती-पोषण-कर्म' कहलाता है। 14-15. दवदाव तथा सर-शोषण-कर्म-आदत के वश होकर या पुण्य समझ कर दव-जंगल में आग लगाना 'दव-दाव' कहलाता है और तालाव, नदी, द्रह आदि को सुखा देना 'सरःशोष-कर्म है / टिप्पण-उक्त पन्द्रह कर्मादान दिग्दर्शन के लिए हैं / इनके समान विशेष हिंसाकारी अन्य व्यापार-धधे भी हैं जो श्रावक के लिए त्याज्य है। यही बात अन्यान्य व्रतों के अतिचारों के संबंध में भी समझनी चाहिए। एक-एक व्रत के पांच-पांच अतिचारों के समान अन्य अतिचार भी व्रत-रक्षा के लिए त्याज्य हैं। ___ --योगशास्त्र, तृतीय प्र. 101-113 8. अनर्थदण्डविरमणक्त के अतिचार प्राठवां अणट्ठादण्डविरमणव्रत-चउन्विहे अणट्ठादंडे पण्णत्ते तं जहा--अवज्झाणायरिए, पमायायरिए, हिंसप्पयाणे, पावकम्मोवएसे (जिसमें आठ आगार-पाए वा, राए वा, नाए वा, परिवारे वा, देवे वा, नागे वा, जक्खे वा, भूए वा, एत्तिाह प्रागारेहि अण्णत्थ) जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि, मणसा, वयसा कायसा एवं प्राठवां अणद्वादंडविरमणव्रत के पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तंजहा ते पालोऊ-कंदप्पे, कुक्कुइए, मोहरिए, संजुत्ताहिगरणे, उवभोगपरिभोगाइरित्ते तस्स मिच्छा मि दुक्कडं। भावार्थ:-बिना प्रयोजन दोषजनक-हिंसाकारी कार्य करना अनर्थदंड है। इसके चार भेद हैं-अपध्यान, प्रमादचर्या, हिंसादान और पापोपदेश / इष्ट संयोग एवं अनिष्ट वियोग की चिता करना, दूसरों को हानि पहुँचाने आदि का विचार करना अर्थात् मन में किसी भी प्रकार का दुर्ध्यान करना अपध्यान है / असावधानी से काम करना, धार्मिक कार्यों को त्याग कर दूसरे कार्यों में लगे रहना प्रमादचर्या है। दूसरों को हल, ऊखल-मूसल, तलवार-बन्दूक प्रादि बिना प्रयोजन हिंसा के उपकरण देना हिंसादान है / पाप कार्यों का दूसरों को उपदेश देना पापोपदेश है। मैं इन चारों प्रकार के अनर्थदण्ड का त्याग करता हूँ। (यदि आत्मरक्षा के लिए, राजा की आज्ञा से, जाति के तथा परिवार के, कुटुम्ब के मनुष्यों के लिए, यक्ष, भूत आदि देवों के वशीभूत होकर अनर्थदण्ड का सेवन करना पड़े तो इनका प्रागार (अपवाद–छूट) रखता हूँ। इन प्रागारों के सिवाय) मैं जन्मपर्यन्त अनर्थदण्ड का मन, वचन, काया से स्वयं सेवन नहीं करूगा और न कराऊंगा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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