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________________ 96] [आवश्यकसूत्र वैभव, 2. रूप, 3. यशःकीति, 4. श्री शोभा, 5. धर्म और 6. प्रयत्न-पुरुषार्थ / ' ये छह विशेषताएँ जिनमें समग्र सर्वोत्कृष्ट रूप में विद्यमान हों, वे भगवान् कहलाते हैं। प्राइगर—प्रादिकर आदि करने वाले / धर्म यद्यपि वस्तु का स्वभाव होने के कारण अनादिअनन्त है, तथापि अहिंसा, तप, संयम आदि रूप व्यवहार धर्म की मर्यादाओं में विभिन्न युगों में जो विकृति आ जाती है, उसे दूर करके धर्म के वास्तविक स्वरूप को, उसकी मर्यादाओं को काल के अनुरूप प्रस्थापित करने के कारण भगवान् आदिकर कहलाते हैं। पुरिससीह-पुरुषसिंह-वन्य पशुओं में सिंह सबसे अधिक पराक्रमशाली गिना जाता है और निर्भय होकर विचरता है / इसी प्रकार भगवान् अनन्त पराक्रमी और निर्भय होने के कारण पुरुषसिंह-पुरुषों में सिंह के समान हैं / पुरिसवरगंधहत्थी-पुरुषवरगन्धहस्ती-गन्धहस्ती वह कहलाता है जिसके गण्डस्थल से सुगन्धित मद झरता रहता है / उस मद की सुगन्ध की अतिशय उग्रता के कारण अन्य हस्ती घबरा जाते हैं-दूर भाग जाते हैं / गंधहस्ती मांगलिक भी माना जाता है / भगवान् के सन्मुख जाते ही अन्य वादी निर्मद हो जाते हैं टिक नहीं सकते हैं और भगवान् परम मांगलिक भी हैं, अतएव पुरुषों में श्रेष्ठ गन्धहस्ती के समान है। लोगनाह—लोकनाथ योग अर्थात् अप्राप्त पदार्थ को प्राप्त कराने वाला तथा क्षेम अर्थात् प्राप्त पदार्थ की रक्षा करने वाला 'नाथ' कहलाता है--'योगक्षेमकरो नाथः / ' भगवान् अप्राप्त मंगलमय धर्म की प्राप्ति कराने वाले और प्राप्त धर्म की विविध विधियों के उपदेश द्वारा रक्षा करने वाले हैं। भगवान् विश्व के समस्त प्राणियों को समभाव से धर्म का उपदेश करते हैं, अतएव समग्र लोक के नाथ हैं। __ लोगपईव-लोकप्रदीप—लोक में अथवा लोक के लिए उत्कृष्ट दीपक / लौकिक दीपक परिमित क्षेत्र में बाह्य अन्धकार को विनष्ट करके प्रकाश करता है, परन्तु भगवान् प्र-दीप-प्रकृष्ट दीप हैं, जो अनादिकाल से प्रात्मा में रहे हुए मिथ्यात्वजन्य अज्ञानान्धकार को सदा के लिए दूर करते हैं / दीप-प्रकाश में अत्यल्प और स्थूल दृष्टिगोचर हो सकने वाले पदार्थ ही भासित होते हैं, किन्तु भगवान् के केवलज्ञान रूपी लोकोत्तर प्रदीप में त्रिकाल संबंधी, सूक्ष्म-स्थूल, इन्द्रियगम्य, अतीन्द्रिय, सभी पदार्थ प्रतिभासित होते हैं / द्रव्य-दीप में स्थूल पदार्थ भी अपने सम्पूर्ण रूप में दिखाई नहीं देते, केवल उनका रूप और प्राकार ही दृष्टिगोचर होता है, भगवान् के ज्ञानप्रदीप में पदार्थ अपने अनन्त-अनन्त गण-पर्यायों समेत प्रतिबिम्बित होता है। द्रव्य-दीप तैलक्षय. पवन के वेग आदि कारणों से बुझ जाता है, परन्तु भगवान् का ज्ञानप्रदीप एक बार प्रज्वलित होकर सदैव प्रज्वलित ही रहता है। अतएव वह दीप नहीं प्रदीप-लोकोत्तर दीपक है। भगवान् का ज्ञान भगवान् से अभिन्न है और वह समग्र लोकों के लिए प्रकाश-प्रदाता है, अतएव भगवान् लोकप्रदीप हैं / अपुणरावित्ति-अपुनरावृत्ति--सिद्धिगति-स्थान के लिए अनेक विशेषणों का यहाँ प्रयोग किया गया है। वे विशेषण सुगम हैं / मोक्ष शिव अर्थात् सब प्रकार के उपद्रवों से रहित है, अचल१. ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशस: श्रिय: / धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णा भग इतीङ्गना। –दशवकालिकचूणि--जिनदास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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