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________________ [आवश्यकसूत्र धम्मदयाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मनायगाणं, धम्मसारहीणं, धम्मवर-चाउरंत-चक्कयट्टीणं // 6 // दोवो ताणं-सरण-गई-पइट्ठाणं, अप्पडिहय-बरनाण-दसणधराणं, वियट्टछउमाणं // 7 // जिणाणं, जावयाणं, तिण्णाणं, तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं, मुत्ताणं, मोयगाणं // 8 // सव्वन्नणं, सव्वदरिसीणं, सिव-मयलमरुय-मणंत-मक्खय-मम्वाबाह-मपुणरावित्ति-सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपसाणं, नमो जिणाणं, जियभयाणं // भावार्थ-श्री अरिहन्त भगवन्तों को नमस्कार हो। (अरिहंत भगवान् कैसे हैं ?) धर्म को मादि करने वाले हैं / धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले हैं, (परोपदेश बिना) स्वयं ही प्रबुद्ध हुए हैं। पुरुषों में श्रेष्ठ हैं, पुरुषों में सिंह (के समान पराक्रमी) हैं, पुरुषों में श्रेष्ठ पुण्डरीक--- श्वेत कमल के समान हैं, पुरुषों में श्रेष्ठ गन्ध-हस्ती हैं / लोक में उत्तम हैं लोक के नाथ हैं, लोक के हितकर्ता हैं, लोक में दीपक हैं, लोक में उद्योत करने वाले हैं। अभय देने वाले हैं, ज्ञान रूपी नेत्र देने वाले हैं, धर्ममार्ग को देने वाले हैं, शरण देने वाले हैं, संयम रूप जीवन के दाता हैं, धर्म के उपदेशक हैं, धर्म के नेता हैं, धर्म के सारथी-संचालक हैं। चार गति का अन्त करने वाले श्रेष्ठ धर्म के चक्रवर्ती हैं, अप्रतिहत एवं श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन को धारण करने वाले हैं, ज्ञानावरण आदि धातिकर्मों से अथवा प्रमाद से रहित हैं। स्वयं राग-द्वष को जीतने वाले हैं, दूसरों को जिताने वाले हैं, स्वयं संसार-सागर से तर गए हैं, दूसरों को तारने वाले हैं, स्वयं बोध पा चुके हैं, दूसरों को बोध देने वाले हैं, स्वयं कर्म से मुक्त हैं, दूसरों को मुक्त कराने वाले हैं। सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं तथा शिव कल्याणरूप, अचल-स्थिर, अरुज-रोग रहित, अनन्त- अन्त रहित, अक्षय-क्षय रहित, अव्याबाध-बाधा-पीड़ा रहित, अपुनरावृति—पुनरागमन से रहित अर्थात् जन्म-मरण से रहित, सिद्धगति नामक स्थान को प्राप्त कर चुके हैं, भय को जीतने वाले हैं, राग-द्वेष को जीतने वाले हैं-ऐसे जिन भगवन्तों को मेरा नमस्कार हो। विवेचन-प्रस्तुत पाठ में अरिहन्त और सिद्ध भगवान् को नमस्कार किया गया है / अनादि काल से अब तक अनन्त अरिहन्त और सिद्ध हो चुके हैं, इस कारण तथा उनकी महत्ता--उत्कृष्टता प्रकट करने के लिए मल पाठ में बहवचन का प्रयोग किया गया है। रागादि प्रान्तरिक रिपूत्रों को विनष्ट करने वाले अरिहन्त कहलाते हैं और आत्मा के साथ बंधे पाठ कर्मों को समूल भस्म कर देने वाले लोकोत्तर महापुरुष सिद्ध कहे जाते हैं / उन जैसा पद प्राप्त करने एवं जिस प्रशस्त पथ पर प्रयाण करके उन्होंने परमोत्तम पद प्राप्त किया है, उसी पथ पर चलकर उस पद को प्राप्त करने के लिए अपने अन्तःकरण में संकल्प एवं सामर्थ्य जागृत करने के लिए उन्हें नमस्कार किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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