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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] चक्षुरिन्द्रिय के 100, घ्राणेन्द्रिय के 100, रसनेन्द्रिय के 100, स्पर्शेन्द्रिय के 100, ये सब आहारसंज्ञा के 500 भेद हुए, इसी प्रकार भयसंज्ञा के 500, मैथुनसंज्ञा के 500, परिग्रहसंज्ञा के 500, ये सब 2000 भेद हुए, इन्हें न करने, न कराने और न अनुमोदन करने के द्वारा तिगुणा करने पर 6000 भेद हुए, फिर इन्हें मन वचन और काया से तिगुणा करने पर 18000 भेद शीलाङ्गरथ के होते हैं। बड़ी संलेखना का पाठ ___अह भंते ! अपच्छिममारणंतिय संलेहणा असणा पाराहणा पौषधशाला, पूजे, पूंजके उच्चारपासवणभूमिका पडिलेहे, पडिलेह के, गमणागमणे, पडिक्कमे, पडिक्कम के, दर्भादिक संथारा संथारे, संथारके दर्भादिक संथारा दुरूहे, दुरूहके पूर्व तथा उत्तर दिशा सन्मुख पल्यांकादिक आसन से बैठे, बैठ के 'करयलसंपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु' एवं वयासी 'नमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं ऐसे अनन्त सिद्ध भगवान् को नमस्कार करके, 'नमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव संपाविउकामाणं' जयवन्ते वर्तमान काले महाविदेह क्षेत्र में विचरते हुए तीर्थकर भगवान् को नमस्कार करके अपने धर्माचार्यजी महाराज को नमस्कार करता हूँ। साधु साध्वी प्रमुख चारों तीर्थ को खमाकर, सर्व जीवराशि को खमाकर, पहले जो व्रत आदरे हैं उनमें जा अतिचार दोष लगे हों, वे सर्व आलोच के, पडिक्कम के, निन्द के निःशल्य होकर के, सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामि, सव्वं मुसावायं पच्चक्खामि, सम्बं आदिण्णादाणं यच्चक्खामि, सव्वं मेहुणं पच्चक्खामि, सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामि, सव्वं कोहं माणं जाव मिच्छादसणसल्लं पच्चक्खामि, सध्वं अकरणिज्जं जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं न करेमि, न कारवेमि, करंतंपि अन्नंन समणुजाणामि मणसा, वयसा, कायसा ऐसे अठारह पापस्थानक पच्चक्ख कर, सव्वं असणं पाणं, खाइम, साइम, चउन्विहंपि प्राहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए ऐसे चारों आहार पच्चक्ख कर जंपि य इमं शरीरं इट्ट, कंतं, पियं, मणुण्णं, मणाम, धिज्जं, विसासियं सम्मयं, अणुमयं, बहुमयं भण्डकरण्डसमाणं रयणकरण्डभूयं, मा णं सीयं, माणं उण्हं, माणं खुहा, माणं पिवासा, मा गं बाला, मा णं चोरा, मा णं दंसमसगा, मा णं वाइयं पित्तियं, कल्फियं, संभीयं, सण्णिवाइयं विविहा रोगायंका परिसहा उवसग्गा फासा फुसन्तु, एवं पि य णं चरहिं उस्सासणिस्सासेहि बोसिरामि त्ति कटु ऐसे शरीर को वोसिरा कर कालं प्रणवकखमाणे विहरामि, ऐसी मेरी सद्दहणा, प्ररूपणा तो है, फरसना करू तब शुद्ध होऊं, ऐसे अपच्छिम मारणंतिय संलेहणा, झूसणा, आराहणाए पंच अइयारा जाणियन्वा न समायरियव्वा तं जहा ते आलोऊं इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पनोगे, जोवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे, तस्स मिच्छामि दुक्कडं। भावार्थ-मृत्यु का समय निकट आने पर संलेखना तप का प्रीति पूर्वक सेवन करने के लिए सर्वप्रथम पौषधशाला का प्रमार्जन करे / मल-मूत्र त्यागने की भूमि का प्रतिलेखन करे / चलनेफिरने की क्रिया का प्रतिक्रमण कर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह करके पल्यंक (पालथी) आदि आसन लगाकर दर्भादिक के आसन पर बैठे और हाथ जोड़ कर शिर से आवर्तन करता हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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