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________________ [आवश्यकसूत्र , बुझंति—बुद्ध होते हैं / बुद्ध अर्थात् पूर्ण ज्ञानी / यहां शंका हो सकती है कि बुद्धत्व तो सिद्ध होने से पहले ही प्राप्त हो जाता है / आध्यात्मिक विकास के क्रमस्वरूप चौदह गुणस्थानों में, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन आदि गुण तेरहवें गुणस्थान में ही प्राप्त हो जाते हैं और मोक्ष, चौदहवें गुणस्थान के बाद होता है / अतः 'सिझंति' के बाद बुज्झति कहने का क्या अभिप्राय है ? समाधान-केवलज्ञान तेरहवें गुणस्थान में प्राप्त हो जाता है, अत: विकासक्रम के अनुसार बुद्धत्व का स्थान पहला है और सिद्धत्व का दूसरा, परन्तु यहां सिद्धत्व के बाद जो बुद्धत्व कहा है उसका अभिप्राय यह है कि सिद्ध हो जाने के बाद भी बुद्धत्व बना रहता है, नष्ट नहीं होता है। कुछ दार्शनिक मुक्तात्माओं में ज्ञान का अभाव हो जाना कहते हैं, उनकी मान्यता का निषेध इस विशेषण से हो जाता है। मुच्चंति---'मुच्चंति' पद का अर्थ है—कर्मों से मुक्त होना / जब तक एक भी कर्म-परमाणु अात्मा से सम्बन्धित रहता है तब तक मोक्ष नहीं हो सकता। प्राचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्ययन के प्रथम सूत्र में लिखा है-"कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः” अर्थात् समस्त कर्मों के नष्ट होने पर मोक्ष होता है। मोक्षप्राप्ति के लिए जिज्ञासु साधकों को ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवं अंतराय इन घातिक कर्मों को सर्वप्रथम नष्ट करने के लिए ज्ञानपूर्वक शुभ क्रिया करनी चाहिये, क्योंकि आत्मा शुभ से ही शुद्ध की ओर अग्रसर होती है और एक समय ऐसा भी आता है कि कष्टसाध्य साधना के द्वारा प्रात्मा में बोध की किरण प्रस्फुटित हो जाती है / जो अघातिक कर्म वेदनीय, नाम, गोत्र एवं प्रायुकर्म जली हुई रस्सी के समान शेष रहते हैं, उनको पांच लघु अक्षर उच्चारण करने में जितना समय लगता है, उतने स्वल्प समय में नष्ट करके ही प्रात्मा सिद्धि को प्राप्त हो जाती है। आशय यह है कि प्रात्मा के साथ अनादि काल से जो कर्मों का सम्बन्ध है, उनका भेदन करके ही आत्मा स्वदशा में स्थिर हो सकती है। महाश्रमण महावीर का कर्मवाद एवं प्रात्मवाद सिद्धान्त अत्यन्त गहन है / प्रत्येक साधक को साधना-पथ पर गतिशील होने से पूर्व सभी तत्वों के सम्बन्ध में सम्यक् प्रकारेण जानकारी कर लेनी चाहिये, जिससे साधक निर्धान्त होकर सहज ही साधना-रत हो सके तथा सिद्ध, बुद्ध हो सके / अर्थात् कर्ममुक्त होकर शाश्वत एवं अक्षय मोक्ष-सुख को प्राप्त कर सके। मोक्ष एक है-आत्मा का कर्म रूप पाश से अलग होना मोक्ष है। यह मोक्ष यद्यपि ज्ञानावरणीय प्रादि पाठ कर्मों में से तत्-तत् कर्मों के छूटने से आठ प्रकार का है, फिर भी मोचनसामान्य की अपेक्षा यह एक है / इसमें भेद नहीं है / जीव की मुक्ति एक ही बार होती है / जो जीव एक बार मोक्ष प्राप्त कर लेता है वह फिर से संसार में जन्म के कारणों का अभाव होने से जन्म धारण नहीं करता, अतः जो स्थिति प्राप्त हो गई है वह सादि होकर भी अपर्यवसित है / उसकी पुनः प्राप्ति का अभाव है, अतः मोक्ष एक ही है। परिनिन्वायंति-आत्मा स्वभाव से ऊर्ध्वगामी है / सम्यग्ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के द्वारा प्रात्मा शुद्ध, बुद्ध, विशुद्ध, अमल, विमल, उज्ज्वल एवं उन्नत बनती है / ज्ञान-दर्शन स्वरूप आत्मा ही शाश्वत तत्त्व है। इससे भिन्न जितने भी राग-द्वेष, कर्म-शरीर आदि भाव हैं, वे सब संयोगजन्य बाह्य भाव हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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