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________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण] [49 लेश्या-सूत्र लेश्या का संक्षिप्त अर्थ है-मनोवृत्ति या विचार-तरंग / उत्तराध्ययनसूत्र, भगवतीसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र आदि में लेश्या का विस्तार से तथा सूक्ष्म रूप से वर्णन किया गया है। लेश्या की व्याख्या करते हुए प्राचार्य जिनदास महत्तर कहते हैं कि प्रात्मा के जिन शुभाशुभ परिणामों के द्वारा शुभाशुभ कर्म का आत्मा के साथ संश्लेषण होता है, वे परिणाम लेश्या कहलाते हैं।' मन, वचन और काय रूप योग के परिणाम लेश्या पदवाच्य हैं। क्योंकि योग के अभाव में अयोगी केवली लेश्यारहित माने गए हैं। लेश्या के मुख्य भेद छह हैं 1. कृष्ण-लेश्या-यह मनोवृत्ति सबसे जघन्य है। कृष्णलेश्या वाले के विचार अतीव क्षुद्र, क्रूर, कठोर एवं निर्दय होते हैं / अहिंसा, सत्य आदि से उन्हें घृणा होती है। इहलोक परलोक से एवं परलोक सम्बन्धी अनिष्ट परिणामों से वे नहीं डरते। उन्हें अपने सुख से मतलब होता हैदूसरों के जीवन का कुछ भी हो, इसकी चिन्ता नहीं रहती है। वे अतिशय क्रूर एवं पापी होते हैं / 2. नील-लेश्या-यह मनोवृत्ति पहली की अपेक्षा कुछ ठीक है परन्तु उपादेय यह भी नहीं। इस लेश्या वाला ईर्ष्यालु, असहिष्णु, मायावी, निर्लज्ज एवं रसलोलुप होता है। अपने सुख में मस्त रहता है। परन्तु जिन प्राणियों के द्वारा सुख मिलता है, उनकी भी 'अजपोषण' न्याय के अनुसार कुछ सार-संभाल कर लेता है। 3. कापोत-लेश्या-यह मनोवृत्ति भी अप्रशस्त है इस लेश्या वाला व्यक्ति विचारने, बोलने और कार्य करने में वक्र होता है / कठोरभाषी एवं अपने दोषों को ढंकने वाला होता है। 4. तेजो-लेश्या-यह मनोवृत्ति पवित्र है। इसके होने पर मनुष्य नम्र, विचारशील, दयालु एवं धर्म में अभिरुचि रखने वाला होता है। अपनी सुख-सुविधा को गौण करके दूसरों के प्रति अधिक उदार-भावना रखता है। 5. पप-लेश्या-पद्म लेश्या वाले मनुष्य का जीवन कमल के समान दूसरों को सुगन्ध देने वाला होता है / इस लेश्या वाले का मन शान्त, निश्चल एवं अशुभ प्रवृत्तियों को रोकने वाला होता है। पाप से भय खाता है / मोह और शोक पर विजय प्राप्त करता है। वह मितभाषी, सौम्य एवं जितेन्द्रिय होता है। 6. शुक्ल-लेश्या-यह मनोवृत्ति सबसे अधिक विशुद्ध होने के कारण शुक्ल कहलाती है। इस लेश्या वाला शरीर के निर्वाह के लिए आहार ग्रहण करता है। किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देता। राग-द्वेष की परिणति हटाकर वीतराग भाव धारण करता है। परम शुक्ललेश्या वाला आसक्तिरहित होकर सतत समभाव रखता है। प्रथम की तीन लेश्याएं-कृष्ण, नील एवं कापोत त्याज्य हैं और अन्त की तीन लेश्याएंतेजो, पद्म एवं शुक्ल उपादेय हैं / अन्तिम शुक्ललेश्या के बिना आत्म-विकास की पूर्णता का होना 1. लिश संश्लेषणे, संश्लिष्यते आत्मा तेस्तैः परिणामान्तरः। यथा श्लेषेण वर्ण-सम्बन्धो भवति एवं लेश्याभिरात्मनि कर्माणि संश्लिश्यन्ते। योग-परिणामो लेश्या, जम्हा अयोगिकेवली प्रलेस्सो।' -प्रावश्यक-चूर्णि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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