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________________ [41 चतुर्थ अध्ययन : प्रतिक्रमण ] सत्ताईस साधु के गुणों से, प्राचारप्रकल्प-पाचारांग तथा निशीथ सूत्र के अट्ठाईस अध्ययनों से, उनतीस पापश्रुत के प्रसंगों से, महामोहनीय कर्म के तीस स्थानों से, सिद्धों के इकतीस आदि या सर्वोत्कृष्ट गुणों से, बत्तीस योगसंग्रहों से, तेतीस आशातनाओं से, यथा-अरिहत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, देव, देवी, इहलोक, परलोक, केवलि-प्ररूपित धर्म, देव-मनुष्य-असुरों सहित समग्र लोक, समस्त प्राण-विकलत्रय, भूत-- वनस्पति, जीव-पंचेन्द्रिय, सत्त्व—पृथ्वीकाय आदि चार स्थावर, तथैव काल, श्रुत-शास्त्र, श्रुतदेवता वाचनाचार्य-इन सबकी आशातना, से, तथा व्याविद्ध-सूत्र के पाठों को या सूत्र के अक्षरों को आगे-पीछे किया हो, व्यत्यानेडितशून्य-चित्त से कई बार पढ़ता ही रहा हो, अन्य सूत्र का पाठ अन्य सूत्र में मिलाया हो, अक्षर छोड़कर पढ़ा हो, प्रत्यक्षर-अक्षर बढ़ा दिये हों, पदहीन पढ़ा हो, शास्त्र एवं शास्त्राध्यापक का समुचित विनय न किया हो, घोषहीन---उदात्तादि स्वरों से रहित पढ़ा हो, योगहीन- उपधानादि तपोविशेष के विना अथवा उपयोग के विना पढ़ा हो, सुष्ठु दत्त- अधिक ग्रहण करने की योग्यता न रखने वाले शिष्य को भी अधिक पाठ दिया हो, दुष्ठुप्रतीच्छित-वाचनाचार्य के द्वारा दिए हुए आगमपाठ को दुष्ट भाव से ग्रहण किया हो, अकाल-स्वाध्याय—कालिक, उत्कालिक सूत्रों को उनके निषिद्ध काल में पढ़ा हो, काल-अस्वाध्याय-विहित काल में सूत्रों को न पढ़ा हो, अस्वाध्याय के समय स्वाध्याय किया हो, स्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय न किया हो। इस प्रकार श्रुतज्ञान की चौदह अाशातनाओं से सब मिलाकर तेतीस अाशातनाओं से जो भी अतिचार लगा हो, तत्सम्बन्धी मेरा दुष्कृत-पाप मिथ्या हो। विवेचन–असंयमसूत्र असंयम, संयम का विरोधी है। असंयम ही समस्त सांसारिक दुःखों का मूल है। चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होने वाले राग-द्वेष रूप कषाय आदि भावों का नाम असंयम है। लोभ एवं तृष्णा ये मन की दृष्ट वत्तियां हैं। इन वत्तियों पर जो संयम नहीं रखता है, अथवा नियंत्रण नहीं रखता है वह इनका दास है, गुलाम है। वह कभी आत्म-विजेता नहीं बन सकता। अत: आत्मविजेता बनने के लिए आत्म-संयम परम आवश्यक है / जो आत्मसंयम नहीं रख सकता, अपने मन एवं इन्द्रियों पर नियंत्रण स्थापित नहीं करता, वह इच्छाओं के कर कभी शांति-समाधि नहीं पा सकता और इच्छाएँ तो आकाश के समान अनन्त हैं। उनकी कभी पूर्ति नहीं हो सकती। शास्त्रकार कहते हैं- 'इच्छा हु आगाससमा अणंतिया।' –उत्तराध्ययन सू. अ.६ यद्यपि संयम के 17 भेद होने से उसके विरोधी असंयम के भी 17 भेद हैं और विस्तार की विवक्षा से अन्य भेद भी हो सकते हैं, जो आगे गिनाए भी गए हैं। किन्तु सामान्यग्राही संग्रहनय की अपेक्षा से यहाँ एक ही प्रकार कहा गया है / बन्धनसूत्र प्रस्तुत सूत्र में राग-द्वेष को बन्धन कहा है। राग-द्वेष के द्वारा अष्टविध कर्मों का बन्ध होता है। राग-द्वेष की प्रवृत्ति चारित्र-मोह के उदय से होती है तथा चारित्र-मोह संयम-जीवन का दूषक एवं घातक है। जब तक राग-द्वेष की मलिनता है, तब तक चारित्र की शुद्धता किसी भी तरह नहीं हो सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003496
Book TitleAgam 28 Mool 01 Avashyak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla, Mahasati Suprabha
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1985
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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