SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 519
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उन्नीसवां उद्देशक] [419 है। शुद्धि करने के बाद भी रक्त आदि निकलता रहे तो स्वाध्याय नहीं किया जा सकता। किन्तु उसके एक-दो उत्कृष्ट तीन पट वस्त्र के बांधकर परस्पर आमग की वांचनी ली-दी जा सकती है, तीन तट के बाहर पुनः खून दीखने लग जाए तो फिर उन्हें शुद्ध करना आवश्यक होता है। ऋतुधर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक रहता है / किन्तु व्यवहार सूत्र के उद्देशक 7, सूत्र 17 में अपने अस्वाध्याय में परस्पर वाचणी लेने-देने का विधान किया गया है। उसकी भाष्य में विधि इस प्रकार बताई है कि-रक्त आदि की शुद्धि करके आवश्यकतानुसार एक-दो अथवा उत्कृष्ट सात वस्त्र पट लगाकर साधु-साध्वी परस्पर आगमों की वांचणी दे-ले सकते हैं। प्रमाण के लिए देखेंव्यव. उ. 7, भाष्य गा. 390-394 तथा निशीथभाष्य गा. 6167-6170. तथा अभि. राजेन्द्र कोश भाग 1 पृ. 833 "असज्झाइय" शब्द / सूत्र 14 और 15 में वर्णित सभी अस्वाध्याय आगमों के देव वाणी में होने से उसके मूलपाठ के उच्चारण से ही सम्बन्धित जानने चाहिए। अतः मासिक धर्म आदि अवस्था में आगमों के अर्थ वांचना या अनुप्रेक्षा, पृच्छा, व्याख्यान श्रवण आदि करने का निषेध नहीं है तथा गृहस्थ को सामायिक आदि संवर प्रवृत्ति एवं नित्य नियम तथा प्रभ-स्तुति-स्मरण करने का निषेध भी नहीं है। आगम स्वाध्याय के नियम यदि सामायिक प्रतिक्रमण आदि धर्म प्रवृत्तियों के लिए भी लागू किए जावें तो यह प्ररूपणा का अतिक्रमण होता है एवं समस्त धर्म क्रियाओं में अंतराय होता है / एक विषय के नियम को अन्य विषय में जोड़ना अनुचित प्रयत्न है / व्यव. उद्देशक 7 में जब स्वयं आगमकार मासिक धर्म आदि के अपने अस्वाध्याय में आगम को वांचणी लेने का भी विधान करते हैं तो फिर किसी भी प्राचार्य के द्वारा सामायिक, प्रतिक्रमण, प्रभुस्मरण, नमस्कार मन्त्र एवं लोगस्स आदि के उच्चारण का निषेध किया जाना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता है। ___ क्योंकि इस प्रकार की आगम विपरीत मान्यता रखने पर संवत्सरी महापर्व के दिन भी ध, प्रतिक्रमण, व्याख्यानश्रवण, मनि दर्शन एवं नमस्कार मन्त्रोच्चारण आदि सभी धार्मिक प्रवृत्तियों से वंचित रहना पड़ता है। सभी प्रकार की धर्म प्रवृत्तियों से वंचित गृहस्थ पर्व दिनों में भी सावध प्रवृत्ति एवं प्रमाद में ही संलग्न होता है इसलिए ऐसी प्ररूपणा करना सर्वथा अनुचित है। अतः स्वकीय अस्वाध्याय में श्रावक श्राविका विवेकपूर्वक सामायिक प्रतिक्रमण आदि क्रिया करें तो इसमें कोई दोष नहीं समझना चाहिए और गृह कार्यों से निवृत्ति के इन तीन दिनों में उनको संवर आदि धर्मक्रिया में ही अधिकतम समय व्यतीत करना चाहिये / साध्वियों को भी अन्य अध्ययन, श्रवण, सेवा, तप, आत्मचिन्तन, ध्यान आदि में समय व्यतीत करना चाहिये। विपरीत क्रम से आगमों की वांचना देने का प्रायश्चित्त 16. जे भिक्खू हेटिल्लाई समोसरणाई अवाएत्ता उरिल्लाइं समोसरणाई वाएइ वायंत वा साइज्जइ / 17. जे भिक्खू णव बंभचेराई अवाएत्ता उत्तम-सुयं वाएइ वाएंतं वा साइज्जइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy