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________________ चतुर्थ उद्देशक [105 स्थान भी यहाँ मार्ग ही समझ लेना चाहिए / अविवेक या कुतूहल से मार्ग में उपकरण रखने पर यह प्रायश्चित्त आता है। प्राचार्यादि के सन्मुख बैठते समय आहार दिखाते समय या अन्य कार्य करते समय असावधानी से मार्ग में उपकरण रखना अविवेक से रखना कहा जाता है / अन्य मीलिन विचारों से रखने पर गुरु चौमासी प्रायश्चित्त प्राता है / नया कलह करने का प्रायश्चित्त 36. जे भिक्खू णवाई अणुप्पण्णाई अहिगरणाई उप्पाएइ, उप्पाएंतं वा साइज्जइ / 36. जो भिक्षु नये-नये झगड़े उत्पन्न करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त पाता है।) विवेचन-उग्न प्रकृति से अतिवाचालता से या निरर्थक भाषण से कलह होते हैं / हास्य या कुतूहल से भी कलह हो सकता है / अतः साधु को विवेक रखना चाहिए। सूयगडांग सूत्र अ० 2, उ० 2, गा० 19 में शिक्षा देते हुए कहा गया है कि "अहिगरणकडस्स भिक्खुणो, वयमाणस्स पसज्य दारुणं / अट्ठ परिहाई बहु, अहिगरणं न करेज्ज पंडिए॥" क्लेश करने से संयम की अत्यधिक हानि होती है, कटुक वचन कहने से आपस में असमाधि व अशांति की वृद्धि हो जाती है। अतः साधु अधिकरण से व अधिकरण की उत्पत्ति के कारणों से सदा दूर रहे। उपशांत कलह को उभारने का प्रायश्चित्त 37. जे भिक्खू पोराणाई अहिगरणाई खामिय विओसमियाई पुणो उदीरेइ उदीरेंतं वा साइज्जइ। 37. जो भिक्षु क्षमायाचना से उपशांत पुराने झगड़ों को पुन: उत्पन्न करता है या करने वाले का अनुमोदन करता है / (उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त अाता है / ) विवेचन-१. खामिय-"खामिय-वायाए"-विधिपूर्वक वचन से क्षमायाचना करना। 2. विओसमिय-"मणसा विओसमियं व्युत्सृष्टं"-चूर्णी / मन से कलह हटा देना, त्याग देना, उपशांत कर देना। जिस व्यक्ति से या जिस प्रसंग के निमित्त से क्लेश उत्पन्न हुआ हो या हो सकता हो उसके लिए पूर्ण विवेक रखना चाहिए। यथासंभव अपनी प्रकृति को शांत रखना चाहिए, अन्यथा उन विषयों से या उन प्रसंगों से अलग रहना चाहिए / विवेक रखते हए भी क्लेश होने की संभावना रहे तो उस व्यक्ति के सम्पर्क से ही अलग रहना चाहिए। अपने कर्मोदय के प्रभाव को एवं व्यक्तिविशेष की प्रकृति को या उदयभाव को समझ कर यथावसर विवेक करना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003492
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1991
Total Pages567
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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