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________________ परिशिष्ट 1 : 'गण' और 'कुल' सम्बन्धी विशेष विचार] [17 __ "एक प्राचार्य की सन्तति या शिष्य-परम्परा को कुल समझना चाहिए / तीन परस्पर सापेक्ष कुलों का एक गण होता है।" पञ्चवस्तुक-टीका में तीन कुलों के स्थान पर परस्पर सापेक्ष अनेक कुलों के श्रमणों के समुदाय को गण कहा है। प्रतीत होता है कि उत्तरोत्तर कुलों की संख्या बढ़ती गई। छोटे-छोटे समुदायों के रूप में उनका बहुत विस्तार होता गया / यद्यपि कल्प-स्थविरावली में जिनका उल्लेख हुया है, वे बहुत थोड़े से हैं, पर जहाँ कुल के श्रमणों की संख्या नौ तक मान ली गई, उससे उक्त तथ्य अनुमेय है। पृथक-पृथक समुदायों या समूहों के रूप में विभक्त रहने पर भी वे भिन्न-भिन्न गणों में सम्बद्ध रहते थे। एक गण में कम से कम तीन कुलों का होना आवश्यक था। अन्यथा गण की परिभाषा में वह नहीं पाता / इसका तात्पर्य यह हुआ कि एक गण में कम से कम तीन कुल अर्थात् तदन्तर्वी कम से कम सत्ताईस साधु सदस्यों का होना आवश्यक माना गया / ऐसा होने पर ही गण को प्राप्त अधिकार उसे सुलभ हो सकते थे। गणों एवं कूलों का पारस्परिक सम्बन्ध, तदाश्रित व्यवस्था प्रादि का एक समयविशेष तक प्रवर्तन रहा / मुनि पं. कल्याणविजयजी ने युगप्रधान-शासनपद्धति के चलने तक गण एवं कुलमूलक परम्परा के चलते रहने की बात कही है, पर युगप्रधान-शासनपद्धति यथावत् रूप में अब तक चली, उसका संचालन क्रम किस प्रकार का रहा, इत्यादि बातें स्पष्ट रूप में अब तक प्रकाश में नहीं पा सकी हैं। अतः काल की इयत्ता में इसे नहीं बाँधा जा सकता। इतना ही कहा जा सकता है, संघ-संचालन या व्यवस्था-निर्वाह के रूप में यह क्रम चला, जहां मुख्य इकाई गण था और उसकी पूरक या योजक इकाइयाँ कुल थे। इनमें परस्पर समन्वय एवं सामंजस्य था, जिससे संघीय शक्ति विघटित न होकर संगठित बनी रही। 1. एत्थ कुलं विष्णेयं, एगायरियस्स संतई जा उ / तिण्ह कुलाणमिहं पुण, सावक्खाणं गणो होई॥ -भगवती सूत्र 8.8 बत्ति 2. परस्परसापेक्षणामनेककुलानां साधूनां समुदाये। -पञ्चवस्तुक टीका, द्वार 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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