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________________ [139 साम्बा परिवाज के सात सौ अन्तेवासी] संनिवाइयविविहा रोगायंका, परीसहोवसग्गा फुसंतु ति कट्ट एयपि णं चरमेहि असासणीसासहि. वोसिरामि" ति कटु संलेहणासणाभूसिया भत्तपाणपडियाइक्खिया पापोवगया कालं प्रणयकंखमाणा' विहरंति। ८७-अहंत्-इन्द्र आदि द्वारा पूजित अथवा कर्मशत्रुओं के नाशक, भगवान् ---प्राध्यात्मिक ऐश्वर्य सम्पन्न, अादिकर---अपने युग में धर्म के प्राद्य प्रवर्तक, तीर्थकर--साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्मतीर्थ-धर्मसंघ के प्रवर्तक, स्वयंसंबुद्ध-स्वयं-विना किसी अन्य निमित्त के बोधप्राप्त, पुरुषोत्तम पुरुषों में उत्तम, पुरुषसिंह-ग्रात्मशौर्य में पुरुषों में सिंह-सदृश, पुरुषवरपुण्डरीक-- सर्व प्रकार की मलिनता से रहित होने के कारण पुरुषों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान अथवा मनुष्यों में रहते हुए कमल की तरह निलेप, पुरुषवर-गन्धहस्ती-उत्तम गन्धहस्ती के सदृश --जिस प्रकार गन्धहस्ती के पहुँचते ही सामान्य हाथी भाग जाते हैं, उसी प्रकार किसी क्षेत्र में जिनके प्रवेश करते ही दुर्भिक्ष, महामारो आदि अनिष्ट दूर हो जाते हैं, अर्थात् अतिशय तथा प्रभावपूर्ण उत्तम व्यक्तित्व के धनी, लोकोत्तम-लोक के सभी प्राणियों में उत्तम, लोकनाथ–लोक के सभी भव्य प्राणियों के स्वामी-उन्हें सम्यक् दर्शन सन्मार्ग प्राप्त कराकर उनका योग-क्षेम' साधने वाले, लोकहितकर-लोक का कल्याण करने वाले, लोकप्रदीप-ज्ञानरूपी दीपक द्वारा लोक का अज्ञान दूर करने वाले अथवा लोकप्रतीपलोक-प्रवाह के प्रतिकूलगामी-अध्यात्मपथ पर गतिशील, लोकप्रद्योतकर-लोक, अलोक, जीव, अजीव आदि का स्वरूप प्रकाशित करने वाले अथवा लोक में धर्म का उद्योत फैलाने वाले, अभयदायक-सभी प्राणियों के लिए अभयप्रद-संपूर्णत: अहिंसक होने के कारण किसी के लिए भय उत्प चक्षुदायक-अान्तरिक नेत्र या सद्ज्ञान देने वाले, मार्गदायक-सम्यक्ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप साधनापथ के उद्बोधक, शरणदायक-जिज्ञासु, मुमुक्षु जनों के लिए प्राश्रयभूत, जीवनदायक प्राध्यात्मिक जीवन के संबल, बोधिदायक-सम्यक् बोध देने वाले, धर्मदायक-सम्यक चारित्ररूप धर्म के दाता, धर्मदेशक-धर्मदेशना देने वाले, धर्मनायक, धर्मसारथि--धर्मरूपी रथ के चालक, धर्मवर चातुरन्तचक्रवर्ती-चार अन्त-सीमायुक्त पृथ्वी के अधिपति के समान धार्मिक जगत् के चक्रवर्ती, दीप-दीपक सदृश समस्त वस्तुप्रों के प्रकाशक अथवा द्वीप-संसार-समुद्र में डूबते हुए जीवों के लिए द्वीप के समान बचाव के आधार, त्राण--कर्म-कथित भव्य प्राणियों के रक्षक, शरण-प्राश्रय, गति एवं प्रतिष्ठा स्वरूप, प्रतिघात, बाधा या आवरण रहित उत्तम ज्ञान, दर्शन आदि के धारक, व्यावृत्तछमा-प्रज्ञान आदि प्रावरण रूप छद्म से अतीत, जिन-राग आदि के जेता, ज्ञायक-राग प्रादि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक राग आदि को जीतने का पथ बताने वाले. तीर्ण-संसार-सागर को पार कर जाने वाले, तारक-संसार-सागर से पार उतारने वाले, बुद्ध-बोद्धव्य या जानने योग्य का बोध प्राप्त किए हुए, बोधक--औरों के लिए बोधप्रद, सर्वज्ञ सर्वदर्शी, शिव कल्याणमय, अचल-स्थिर, निरुपद्रव, अन्तरहित, क्षयरहित, बाधारहित, अपुनरावर्तन जहाँ से फिर जन्म-मरण रूप संसार में आगमन नहीं होता, ऐसी सिद्धि-गति-सिद्धावस्था नामक स्थिति प्राप्त किये हुए-सिद्धों को नमस्कार हो। भगवान महावीर को, जो सिद्धावस्था प्राप्त करने के समुद्यत हैं, हमारा नमस्कार हो / अप्राप्तस्य प्रापणं योगः– जो प्राप्त नहीं है, उसका प्राप्त होना योग कहा जाता है। प्राप्तस्य रक्षणं क्षेम:--प्राप्त की रक्षा करना क्षेम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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