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________________ 114] [औपपातिकसूत्र _तितिक्षापूर्वक अन्तिम मरण रूप संलेखणा-तपश्चरण, पामरणं, अनशन की आराधनापूर्वक देहत्याग श्रावक की इस जीवन की साधना का पर्यवसान है, जिसकी एक गृही साधक भावना लिए रहता है। भगवान् ने कहा--आयुष्मान् ! यह गृही साधकों का आचरणीय धर्म है। इस धर्म के अनुसरण में प्रयत्नशील होते हुए श्रमणोपासक-श्रावक या श्रमणोपासिका--श्राविका आज्ञा के आराधक होते हैं। परिषद्-विसर्जन ५८-तए णं सा महतिमहालिया मणूसपरिसा समणस्स भगवप्रो महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा, णिसम्म हट्टतुट्ठ जाव' हियया उठाए उठेइ, उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता प्रत्येगइया मुडे भवित्ता अगाराम्रो अणगारियं पव्वइया, प्रत्येगइया पंचाणुधइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडियण्णा / ५८-तब वह विशाल मनुष्य-परिषद् श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुनकर, हृदय में धारण कर, हृष्ट-तुष्ट—अत्यन्त प्रसन्न हुई, चित्त में प्रानन्द एवं प्रीति का अनुभव किया, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित-हृदय होकर उठी / उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार प्रादक्षिण-प्रदक्षिणा, वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर उनमें से कई गृहस्थ-जीवन का परित्याग कर मुडित होकर, अनगार या श्रमण के रूप में प्रवजित-दीक्षित हुए। कइयों ने पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गृहि-धर्म-श्रावक-धर्म स्वीकार किया। ५९--प्रवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-. "सुअक्खाए ते भंते ! निग्गथे पावयणे एवं सुपण्णत्ते, सुभासिए, सुविणीए, सुभाविए, अणुत्तरे ते भंते ! निग्गंथे पावयणे, धम्म णं प्राइक्खमाणा तुडभे उवसमं प्राइक्खह, उयसमं प्राइक्खमाणा विवेगं प्राइवखह, विवेगं प्राइक्खमाणा वेरमणं प्राइक्खह, वेरमणं प्राइक्खमाणा प्रकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह, णस्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा, जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए, किमंग पुण एत्तो उत्तरसरं ?" एवं बदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूया, तामेव दिसं पडिगया। 59- शेष परिषद् ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन किया, नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर कहा-"भगवन् ! आप द्वारा सुप्राख्यात सुन्दर रूप में कहा गया, सुप्रज्ञप्त-उत्तम रोति से समझाया गया, सुभाषित-हृदयस्पर्शी भाषा में प्रतिपादित किया गया, सुविनीत-शिष्यों में सुष्ठ रूप में विनियोजित- अन्तेवासियों द्वारा सहजरूप में अंगीकृत, सुभावित- प्रशस्त भावों से युक्त निर्ग्रन्थ-प्रवचन-धर्मोपदेश, अनुत्तर--सर्वश्रेष्ठ है / आपने धर्म की व्याख्या करते हुए उपशम-क्रोध आदि के निरोध का विश्लेषण किया। उपशम की व्याख्या करते हुए विवेक—बाह्य ग्रन्थियों के त्याग को समझाया / विवेक की व्याख्या करते हुए अापने विरमण विरति या निवृत्ति का निरूपण किया। विरमण की व्याख्या करते हुए आपने पाप-कर्म न करने की विवेचना को / दूसरा कोई श्रमण 1. देखें सूत्र-संख्या 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003480
Book TitleAgam 12 Upang 01 Auppatik Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1992
Total Pages242
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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