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________________ 16] अंजा [उपासकदशांगसूत्र छत्तीसाए अज्जिया-सहस्सोहिं सद्धि संपरिवुडे, पुवाणुपुन्वि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे) समोसरिए। परिसा निग्गया। कूणिए राया जहा, तहा जियसत्तू निग्गच्छइ। निग्गच्छित्ता जाव (जेणेव दूइपलासए चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताईए तित्थयरातिसेसे पासइ, पासित्ता आभिसेक्कं हत्यि-रयणं ठवेइ, ठवित्ता आभिसेक्काओ हत्थिरयणाओ पच्चोरुहइ, आभिसेक्काओ हत्थि-रयणाओ पच्चोरुहिता अवहट्ट पंच-राय-ककुहाई, तं जहा खग्गं, छत्तं उप्फेसं, वाहणाओ, बालवीयणं, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव, उवागच्छइ, उवागच्छिता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तं जहा–सच्चित्ताणं दवाणं विउसरणयाए, अच्चित्ताणं दवाणं अविउसरणयाए, एगसाडियं उत्तरासंगं करणेणं, चक्खुफासे ल-पग्गहेणं, मणसो एगत्त-भाव-करणेणं समणं भगवं महावीरं तिक्खत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ, तं जहा-काइआए, वाइआए, माणसिआए। काइआए ताव संकुइयग्गहत्थ-पाए, सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ, वाइआए.--.-जं जं भगवं वागरेइ, तं तं एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते ! से जहेयं तुब्भे वदह, अपडिकूलमाणे पज्जुवासइ, माणसियाए महया संवेगं जणइत्ता तिव्व-धम्माणुराग-रत्ते) पज्जुवासइ / उस समय श्रमण-घोर तप या साधना रूप श्रम में निरत, भगवान् आध्यात्मिक ऐश्वर्यसम्पन्न, महावीर-उपद्रवों तथा विघ्नों के बीच साधना-पथ पर वीरतापूर्वक अविचल भाव से गतिमान् [आदिकर—अपने युग में धर्म के आद्य प्रवर्तक, तीर्थकर साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्म-तीर्थ-धर्मसंघ के प्रतिष्ठापक, स्वयं संबुद्ध-स्वयं-बिना किसी अन्य निमित्त के बोध-प्राप्त, पुरुषोत्तम पुरुषों में उत्तम, पुरुष सिंह-आत्मशौर्य में पुरुषों में सिंह-सदृश, पुरुषवरपंडरीक-मनष्यों में रहते हए कमल की तरह निर्लेप-आसक्तिशुन्य, पुरुषवर-गंधहस्ती-पुरुषों में उत्तम गन्धहस्ती के सदश-जिस प्रकार गन्धहस्ती के पहंचते ही सामान्य हाथी भाग जाते हैं, उसी प्रकार किसी क्षेत्र मे जिनके प्रवेश करते ही दुर्भिक्ष, महामारी आदि अनिष्ट दूर हो जाते थे, अर्थात् अतिशय तथा प्रभावपूर्ण उत्तम व्यक्तिव के धनी, अभयप्रदायक सभी प्राणियों के लिए अभयप्रदसंपूर्णतः अहिंसक होने के कारण किसी के लिए भय उत्पन्न नहीं करने वाले, चक्षु-प्रदायक आन्तरिक नेत्र सद्ज्ञान देने वाले, मार्ग-प्रदायक सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप साधना-पथ के उद्बोधक, शरणप्रद–जिज्ञासु तथा मुमुक्षु जनों के लिए आश्रयभूत, जीवनप्रद आध्यात्मिक जीवन के संबल, दीपक सदृश समस्त वस्तुओं के प्रकाशक अथवा संसार-सागर में भटकते जनों के लिए द्वीप के समान प्राश्रयस्थान, प्राणियों के लिए आध्यात्मिक उद्बोधन के नाते शरण, गति एवं आधारभूत, चार अन्त-सीमा युक्त पृथ्वी के अधिपति के समान धार्मिक जगत् के चक्रवर्ती, प्रतिघात-बाधा या आवरण रहित उत्तम ज्ञान, दर्शन आदि के धारक, व्यावृत्तछद्मा-अज्ञान शादि शावरण रूप छद्म से अतीत, जिन-राग आदि के जेता, ज्ञायक-राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक-राग आदि को जीतने का पथ बताने वाले, तीर्ण----संसार-सागर को पार कर जानेवाले, तारक-संसार-सागर से पार उतारने वाले, मुक्त-बाहरी और भीतरी ग्रंथियों से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003475
Book TitleAgam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages276
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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