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________________ 534 ] [ ज्ञाताधर्मकथा पार्श्व थे, उसी पोर गये / जाकर भगवान् को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करने के पश्चात् इस प्रकार कहा २२-'एवं खलु देवाणुप्पिया! काली दारिया अम्हं धूया इट्ठा कंता जाव किमंग पुण पासणयाए ? एस णं देवाणुप्पिया ! संसार-भउविग्गा इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता णं जाव पब्वइत्तए, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं सिस्सिणीभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सिस्सिणीभिक्खं / ' 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं करेह / ' _ 'देवानुप्रिय ! काली नामक दारिका हमारी पुत्री है। हमें यह इष्ट है और प्रिय है, यावत् इसका दर्शन भी दुर्लभ है / देवानुप्रिय ! यह संसार-भ्रमण के भय से उद्विग्न होकर आप देवानुप्रिय के निकट मुडित होकर यावत् प्रवजित होने की इच्छा करती है। अतएव हम यह शिष्यनीभिक्षा देवानुप्रिय को प्रदान करते हैं / देवानुप्रिय ! शिष्यनीभिक्षा स्वीकार करें।' भगवान बोले-'देवानुप्रिय ! जैसे सूख उपजे करो। धर्मकार्य में विलम्ब न करो।' २३-तए णं सा काली कुमारी पासं अरहं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता उत्तरपुरथिमं दिसिभायं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव लोयं करेइ, करिता जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता पासं अरहं तिक्खुत्तो वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते णं भंते ! लोए, एवं जहा देवाणंदा,' जाव सयमेव पवावेउं / तत्पश्चात् काली कुमारी ने पार्श्व अरिहंत को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके वह उत्तरपूर्व (ईशन) दिशा के भाग में गई / वहाँ जाकर उसने स्वयं ही प्राभूषण, माला और अलंकार उतारे और स्वयं ही लोच किया। फिर जहाँ पुरुषादानीय अरहन्त पार्श्व थे वहाँ पाई। पाकर पार्श्व अरिहन्त को तीन बार वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोली-'भगवन् ! यह लोक प्रादीप्त है अर्थात् जन्म-मरण आदि के संताप से जल रहा है, इत्यादि (भगवतीसूत्रणित) देवानन्दा के समान जानना चाहिए / यावत् मैं चाहती हूँ कि आप स्वयं ही मुझे दीक्षा प्रदान करें। २४-तए णं पासे अरहा पुरिसादाणीए कालि सयमेव पुप्फचलाए अज्जाए सिस्सिणियत्ताए दलयति / तए णं सा पुष्फचूला अज्जा कालि कुमारि सयमेव पवावेइ, जाव उवसंपज्जित्ता णं विहरइ / तए णं सा काली अज्जा जाया ईरियासमिया जाव' गुत्तबंभयारिणी। तए णं सा कालो अज्जा पुप्फचूलाअज्जाए अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, बहूणि चउत्थ जाव [छट्ठट्ठमदसमदुवालसेहि मासद्धमासखमहिं अप्पाणं भावेमाणी] विहरइ / तत्पश्चात् पुरुषादानीय अरिहन्त पार्श्व ने स्वयमेव काली कुमारी को, पुष्पचूला प्रार्या को शिष्यनी के रूप में प्रदान किया। ___ तब पुष्पचला आर्या ने काली कुमारी को स्वयं ही दीक्षित किया। यावत् वह काली प्रव्रज्या अंगीकार करके विचरने लगी। तत्पश्चात् वह काली आर्या ईर्यासमिति से युक्त यावत् गुप्त 1. भगवती. श. 9 2. प्र. 14 सू. 28. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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