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________________ उन्नीसवाँ अध्ययन : पुण्डरीक ] [ 519 प्रवज्या का परित्याग २१-तए णं पुंडरीए कंडरीयं एवं वयासो-'अट्ठो भंते ! भोगोहि ?' 'हंता अट्ठो। तब पुण्डरीक राजा ने कंडरीक से पूछा---'भगवन् ! क्या भोगों से प्रयोजन है ? अर्थात् क्या भोग भोगने की इच्छा है ? तब कंडरीक ने कहा-'हाँ प्रयोजन है।' राज्याभिषेक २२-तए णं पोंडरोए राया कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासो-'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कंडरीयस्स महत्थं जाव रायाभिसेयं उबटुवेह / ' जाव रायाभिसेएणं अभिसिंचइ / तत्पश्चात् पुण्डरीक राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुला कर इस प्रकार कहा-- 'देवानुप्रियो ! शीघ्र ही कंडरीक के महान् अर्थव्यय वाले एवं महान पुरुषों के योग्य राज्याभिषेक की तैयारी करो।' यावत् कंडरीक राज्याभिषेक से अभिषिक्त किया गया / वह मुनिपर्याय त्याग कर राजसिंहासन पर आसीन हो गया। पुण्डरीक का दीक्षाग्रहण २३--तए णं पुंडरीए सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ सयमेव चाउज्जामं धम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता कंडरीयस्स अतिसं आयारभंड यं गेण्हइ, गेण्हित्ता इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-- 'कप्पइ मे थेरे वंदित्ता णमंसित्ता थेराणं अंतिए चाउज्जामं धम्म उवसंपज्जित्ता णं तओ पच्छा आहारं आहारित्तए' त्ति कटु इमं च एयारूवं अभिम्गहं अभिगिण्हेत्ता णं पोंडरीगिणीए पडिणिक्खमइ / पडिणिक्खमित्ता पुव्वाणुपुन्वि चरमाणे गामाणुणामं दूइज्जमाणे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तत्पश्चात् पुण्डरीक ने स्वयं ही पंचमुष्ठिक लोच किया और स्वयं ही चातुर्याम धर्म अंगीकार किया / अंगीकार करके कंडरीक के आचारभाण्ड (उपकरण) ग्रहण किये और इस प्रकार का अभिग्रह ग्रहण किया स्थविर भगवान् को वन्दन-नमस्कार करने और उनके पास से चातुर्याम धर्म अंगीकार करने के पश्चात् ही मुझे पाहार करना कल्पता है। ऐसा कहकर और इस प्रकार का अभिग्रह धारण करके पुण्डरीक पूण्डरोकिणी नगरा से बाहर निकला / निकल कर अनुक्रम से चलता हश्रा, एक ग्राम दूसरे ग्राम जाता हुआ, जिस ओर स्थविर भगवान् थे, उसी अोर गमन करने को उद्यत हुआ। विवेचन-आगमों में अनेक स्थलों पर दीक्षा के प्रसंग में 'पंचमुट्ठियलोय' अर्थात् पञ्च मुष्ठियों द्वारा लोच करने का उल्लेख पाता है / अभिधानराजेन्द्रकोष में इसका अर्थ किया गया है-'पञ्चभिमुष्टिभिः शिरः केशापनयनम्' अर्थात् पाँच मुट्टियों से शिर के केशों का उत्पाटन करना हटा देना। इस अर्थ के अनुसार पाँच मुट्रियों से शिर के केशों को उखाड़ने का अभिप्राय तो स्पष्ट होता है किन्तु दाढी और मूछों के केशों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं होता / इन केशों का अपनयन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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