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________________ उन्नीसवां अध्ययन : पुण्डरीक ] [517 तत्पश्चात् स्थविर भगवान् ने पुण्डरीक राजा से पूछा अर्थात् अपने विहार की उसे सूचना दी। तदनन्तर वे बाहर जाकर जनपद-विहार विहरने लगे। ___उस समय कण्डरीक अनगार उस रोग-आतंक से मुक्त हो जाने पर भी उस मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार में मूच्छित, गृद्ध,प्रासक्त और तल्लीन हो गए / अतएव वे पुण्डरीक राजा से पूछ कर अर्थात् कहकर बाहर जनपदों में उग्र विहार करने में समर्थ न हो सके / शिथिलाचारी होकर वहीं रहने लगे। १६-तए णं से पोंडरोए इमोसे कहाए लद्धठे समाणे व्हाए अंतेउरपरियालसंपरिबुडे जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं तिक्छ्तो आयाहिणं फ्याहिणं करेइ, करिता वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-'धन्ने सि गं तुमं देवाणुप्पिया ! कयत्थे कयपुष्णे कयलक्खणे, सुलद्धे णं देवाणुप्पिया ! तव माणुस्सए जम्म-जीवियफले, जे गं तुमं रज्जं च जाव अंतेउरं च छड्डइत्ता विगोवइत्ता जाब पम्वइए / अहं णं अहण्णे अकयपुण्णे रज्जे जाव अंतेउरे य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुन्छिए जाव अझोववन्ने नो संचाएमि जाव पव्वइत्तए / तं धनो सि णं तुमं देवाणुप्पिया! जाव जीवियफले / ' तत्पश्चात् पुण्डरीक राजा ने इस कथा का अर्थ जाना अर्थात् जब उसे यह बात विदित हुई, तब वह स्नान करके और विभूषित होकर तथा अन्तःपुर के परिवार से परिवृत होकर जहाँ कण्डरीक अनगार थे वहाँ आया। आकर उसने कण्डरीक को तीन बार पादक्षिण प्रदक्षिणा की। फिर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना और नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय ! आप धन्य हैं, कृतार्थ हैं, कृतपुण्य हैं और सुलक्षण वाले हैं। देवानुप्रिय ! प्रापको मनुष्य के जन्म और जीवन का फल सुन्दर मिला है, जो आप राज्य को और अन्तःपुर को त्याग कर और दुत्कार कर प्रवजित हुए हैं / और मैं अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, यावत् राज्य में, अन्तःपुर में और मानवीय कामभोगों में मूच्छित यावत् तल्लीन हो रहा हूँ, यावत् दीक्षित होने के लिए समर्थ नहीं हो पा रहा हूँ / अतएव देवानुप्रिय ! आप धन्य हैं, यावत् आपको जन्म और जीवन का सुन्दर फल प्राप्त हुआ है / १७-तए णं से कंडरीए अणगारे पुंडरीयस्स एयमझें णो आढाइ जाव [णो परियाणाइ, तुसिणीए] संचिठुइ / तए णं कंडरीए पुडरीएणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं बुत्ते समाणे अकामए अवस्सवसे लज्जाए गारवेण य पोंडरीयं रायं आपच्छड, आपच्छित्ता थेरेहि सद्धि बहिया जणवयविहारं विहरइ / तए णं से कंडरीय थेरेहिं सद्धि किंचि कालं उग्गंउग्गेणं विहरइ। तओ पच्छा समणत्तणपरितंते समणत्तणणिविणे समणत्तणणिन्भस्थिए समणगुणमुक्कजोगी थेराणं अंतियाओ सणियं सणिणं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव पुंडरीगिणी पयरी, जेणेव पुंडरीयस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टगंसि णिसीयह, णिसीइत्ता ओयमणसंकप्पे जाव झियायमाणे संचिट्ठइ / तत्पश्चात् कण्डरीक अनगार ने पुण्डरीक राजा की इस बात का आदर नहीं किया / यावत् वह मौन बने रहे / तब पुण्डरीक ने दूसरी बार और तीसरी बार भी यही कहा / तत्पश्चात् इच्छा न होने पर भी विवशता के कारण, लज्जा से और बड़े भाई के गौरव के कारण पुण्डरीक राजा से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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