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________________ 510 ] [ ज्ञाताधर्मकथा विवेचन---'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' अर्थात् धर्म का प्रथम अथवा प्रधान साधन शरीर है / शरीर को रक्षा पर ही संयम को रक्षा निर्भर है। मानव-शरीर के माध्यम से ही मुक्ति की साधना संभव होती है / अतएव त्यागो वैरागी उच्चकोटि के सन्तों को भी शरीर टिकाए रखने के लिए आहार करना पड़ता है। तीर्थंकरों ने आहार करने का विधान भी किया है। किन्तु सन्त जनों का आहार अपने लक्ष्य को प्रति के एक मात्र ध्येय को समक्ष रख कर होना चाहिए। शरीर को पूष्टि, सुन्दरता, विषयसेवन की शक्ति, इन्द्रिय-तृप्ति आदि की दष्टि से नहीं। साधु-जीवन में अनासक्ति का बड़ा महत्त्व है / गृहस्थों के घरों से गोचर-चर्या द्वारा साधु को आहार उपलब्ध होता है / वह मनोज्ञ भी हो सकता है, अमनोज्ञ भी हो सकता है। आहार अमनोज्ञ हो तो उस पर अप्रीतिभाव अरुचि या द्वेष का भाव उत्पन्न न हो और मनोज्ञ आहार करते समय प्रोति या प्रासक्ति उत्पन्न न हो, यह साधू के समभाव की कसौटी है। यह कसौटी बड़ी विकट है। आहार न करना उतना कठिन नहीं है, जितना कठिन है मनोहर सुस्वाद प्राहार करते हए भी पूर्ण रूप से अनासक्त रहना / विकार का कारण विद्यमान होने पर भी चित्त को विकृत न होने देने के लिए दीर्घकालिक अभ्यास, अत्यन्त धैर्य एवं दृढता की आवश्यकता होती है। साधु के चित्त में आहार करते समय किस श्रेणी की अनासक्ति होनी चाहिए, इस तथ्य को सरलता से समझाने के लिए ही प्रस्तुत उदाहरण की योजना की गई है। धन्य सार्थवाह को अपनी बेटी सुसुमा अतिशय प्रिय थी। उसकी रक्षा के लिए उसने सभी संभव उपाय किए थे। उसके निर्जीव शरीर को देखकर वह संज्ञाशून्य होकर धरती पर गिर पड़ा। रोता रहा / इससे स्पष्ट है कि सुसुमा उसको प्रिय पुत्री थी / तथापि प्राण-रक्षा का अन्य उपाय न रहने पर उसने उसके निर्जीव शरीर के मांस-शोणित का माहार किया। कल्पना की जा सकती है। कि इस प्रकार का पाहार करते समय धन्य के मन में किस सीमा का अनासक्त भाव रहा होगा ! निश्चय ही लेशमात्र भी आसक्ति का संस्पर्श उसके मन को नहीं हुआ होगा-अनुराग निकट भी नहीं फटका होगा / धन्य ने उस आहार में तनिक भी आनन्द न माना होगा / राजगृह नगर और अपने घर पहुँचने के लिए प्राण टिकाए रखना ही उसका एक मात्र लक्ष्य रहा होगा। साधु को इसी प्रकार का अनासक्त भाव रखकर आहार करना चाहिए। अनासक्ति को समझाने के लिए इससे अच्छा तो दूर रहा, इसके समकक्ष भी अन्य उदाहरण मिलना संभव नहीं है / यह सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। इसी दृष्टिकोण को समक्ष रख कर इस उदाहरण की अर्थघटना करनी चाहिए। ४४--एवं खलु जंबू ! :समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठारसमस णायज्झयणस्स अयमठे पण्णते त्ति बेमि। जम्बू ! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने अठारहवें ज्ञात-अध्ययन का यह अर्थ कहा है / जैसा मैंने सुना वैसा ही तुम्हें कहा है। / / अठारहवां अध्ययन समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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