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________________ [ ज्ञाताधर्मकथा सुसुमा चिलात के द्वारा मार डाली गई है / यह देख कर कुल्हाड़े से काटे हुए चम्पक वृक्ष के समान या बंधनमुक्त इन्द्रयष्टि के समान धड़ाम से वह पृथ्वी पर गिर पड़ा। ३४-तए णं से धण्णे सत्यवाहे पंचहि पुत्तेहिं अध्पछ8 आसत्थे कूवमाणे कंदमाणे विलवमाणे महया महया सद्देणं कुहकुहसुपरुन्ने' सुचिरं कालं वाहमोक्खं करेइ / तत्पश्चात् पांच पुत्रों सहित छठा पाप धन्य सार्थवाह आश्वस्त हुआ तो आक्रंदन करने लगा, विलाप करने लगा और जोर-जोर के शब्दों से कुह-कुह (अस्पष्ट शब्द) करता रोने लगा। वह बहुत देर तक प्रांसू बहाता रहा / आहार-पानी का अभाव ३५-तए णं से धण्णे पंचहि पुत्तेहि अप्पछठे चिलायं तीसे अगामियाए सव्वओ समंता परिधाडेमाणा तण्हाए छहाए य पराभए समाणे तीसे अगामियाए अडवीए सव्वओ समंता उदगस्स मग्गणगवेसणं करेति, करिता संते तंते परितंते णिन्विन्ने तीसे अगामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणे नो चेव णं उदगं आसादेइ / पांच पुत्रों सहित छठे स्वयं धन्य सार्थवाह ने चिलात चोर के पीछे चारों ओर दौड़ने के कारण प्यास और भूख से पीड़ित होकर, उस अग्रामिक अटवी में सब तरफ जल की मार्गणा-गवेषणा की। गवेषणा करके वह श्रान्त हो गया, ग्लान हो गया, बहुत थक गया और खिन्न हो गया। उस अग्रामिक अटवी में जल की खोज करने पर भी वह कहीं जल न पा सका। धन्य सार्थवाह का प्राणत्याग का प्रस्ताव ३६-तए णं उदगं अणासाएमाणे जेणेव सुसुमा जीवियाओ ववरोविया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जेठे पुत्तं धण्णे सत्यवाहे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-‘एवं खलु पुत्ता ! सुसुमाए दारियाए अट्टाए चिलायं तक्करं सवओ समंता परिधाडेमाणा तण्हाए छुहाए य अभिभूया समाणा इमोसे अगामियाए अडवीए उदगस्स मग्गणगवेसणं करेमाणा णो चेव णं उदगं आसादेमो। तए गं उदगं अणासाएमाणा णो संचाएमो रायगिहं संपावित्तए। तं णं तुम्हं ममं देवाणुप्पिया! जीवियाओ ववरोवेह, मंस च सोणियं च आहारेह, आहारित्ता तेणं आहारेणं अवहिट्ठा समाणा तओ पच्छा इमं अगामियं अडवि णित्थरिहिह, रायगिहं च संपाविहिह, मित्त-णाइय-नियग-सयण-संबंधि-परियणं अभिसमागच्छिहिह, अत्थस्स य धम्मस्स य पुण्णस्स य आभागी भविस्सह / ' तत्पश्चात कहीं भी जल न पाकर धन्य सार्थवाह, जहाँ सुसुमा जीवन से रहित की गई थी, उस जगह पाया / आकर उसने ज्येष्ठ पुत्र को बुलाया। बुलाकर उससे कहा-'हे पुत्र ! सुसुमा दारिका के लिये चिलात तस्कर के पीछे-पीछे चारों ओर दौड़ते हुए प्यास और भूख से पीडित होकर हमने इस अग्रामिक अटवी में जल की तलाश की, मगर जल न पा सके / जल के बिना हम लोग राजगह नहीं पहुँच सकते / अतएव हे देवानुप्रिय ! तुम मुझे जीवन से रहित कर दो और सब भाई मेरे मांस 1. पाठान्तर-'कुहकुहास परुन्ने' -अंगसुत्ताणि / 2. पाठान्तर--'अवथद्धा' और 'प्रववद्धा'--.अं. सु. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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