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________________ [501 अठारहवां अध्ययन : सुसुमा] (चिलात ने कहा-) 'देवानुप्रियो ! राजगृह नगर में धन्य नामक धनाढ्य सार्थवाह है। उसकी पुत्री, भद्रा की प्रात्मजा और पांच पुत्रों के पश्चात् जन्मी हुई सुसुमा नाम की लड़की है / वह परिपूर्ण इन्द्रियों वाली यावत् सुन्दर रूप वाली है। तो हे देवानुप्रियो ! हम लोग चलें और धन्य सार्थवाह का घर लूटें / उस लूट में मिलने वाला विपुल धन, कनक, यावत् [रत्न, मणि, मोती, शंख तथा] शिला मूगा वगैरह तुम्हारा होगा, सुसुमा लड़की मेरी होगी।' तब उन पांच सौ चोरों ने चोरसेनापति चिलात की यह बात अंगीकार की। २२-तए णं से चिलाए चोरसेणावई तेहि पंचहि चोरसएहि सद्धि अल्लं चम्मं दुरूहइ, पच्चावरण्हकालसमयंसि पंचहि चोरसएहिं सद्धि सन्नद्ध जाव गहियाउहपहरणे माइयगोमुहिएहि फलएहि, णिक्कट्ठाहि असिलट्ठीहि, अंसगएहि तोहि, सजीवेहि धहिं, समुक्खित्तेहिं सरेहि समुल्लालियाहि दाहाहि, ओसारियाहि उरुघंटियाहिं, छिप्पतूरेहि वज्जमाणेहि महया महया उक्किट्ठसीहणायबोल-कलकलरवेणं जाव [पक्खुभियमहा-] समुद्दरवभूयं करेमाणा सीहगुहाओ चोरपल्लीओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रायगिहस्स अदूरसामंते एगं महं गहणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता दिवसं खवेमाणो चिट्ठइ / तत्पश्चात् चिलात चोरसेनापति उन पांच सौ चोरों के साथ (मंगल के लिए) आर्द्र चर्म (गीली चमड़ी) पर बैठा / फिर दिन के अंतिम प्रहर में पांच सौ चोरों के साथ कवच धारण करके तैयार हुआ / उसने श्रायुध और प्रहरण ग्रहण किये / कोमल गोमुखित-~गाय के मुख सरीखे किये हुए फलक (ढाल) धारण किये। तलवारें म्यानों से बाहर निकाल लीं / कन्धों पर तर्कश धारण किये। धनुष जीवायुक्त कर लिए। वाण बाहर निकाल लिए / बछियाँ और भाले उछालने लगे / जंघाओं पर बाँधी हुई घंटिकाएँ लटका दीं / शीघ्र बाजे बजने लगे। बड़े-बड़े उत्कृष्ट सिंहनाद और बोलों की कल-कल ध्वनि से ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे महासमुद्र का खलबल शब्द हो रहा हो ! इस प्रकार शोर करते हुए वे सिंहगुफा नामक चोरपल्ली से बाहर निकले / निकलकर जहाँ राजगृह नगर था, वहाँ पाये / आकर राजगह नगर से कुछ दूर एक सघन वन में घुस गये। वहाँ घुस कर शेष रहे दिन को समाप्त करने लगे—सूर्य के प्रस्त हो जाने की प्रतीक्षा करने लगे। २३-तए णं से चिलाए चोरसेणावई अद्धरत्तकालसमयंसि निसंतपडिनिसंतंसि पंचहिं चोरसहि सद्धि माइयगोमुहिएहि फलएहि जाव मूइआहि ऊरुघंटियाहिं जेणेव रायगिहे नयरे पुरच्छिमिल्ले दुवारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उदगवत्थि परामुसइ, परामुसित्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूइ तालुग्धाडणिविज्जं आवाहेइ, आवाहिता रायगिहस्स दुवारकवाडे उदएणं अच्छोडेइ, अच्छोडित्ता कवाडं विहाडेइ, विहाडित्ता रायगिहं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता महया महया सद्देणं उग्रोसेमाणे उग्घोसेमाणे एवं वयासी तत्पश्चात् चोरसेनापति चिलात आधी रात के समय, जब सब जगह शान्ति और सुनसान हो गई थी, पांच सौ चोरों के साथ, रीछ आदि के बालों से सहित होने के कारण कोमल गोमुखित (ढाले) छाती से बाँध कर यावत् जांघों पर धूघरे लटका कर राजगृह नगर के पूर्व दिशा के दरवाजे पर पहुँचा / पहुँच कर उसने जल की मशक ली। उसमें से जल की एक अंजलि लेकर आचमन किया, स्वच्छ हुआ, पवित्र हुआ। फिर ताला खोलने की विद्या का आवाहन करके राजगृह के द्वार के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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