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________________ 484 ] [ ज्ञाताधर्मकथा २६-तए णं से कणगकेऊ राया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावित्ता सक्कारेइ, संमाणेइ, सक्कारित्ता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ। तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने कालिक द्वीप भेजे हुए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया बुला कर उनका भी सत्कार-सन्मान किया और फिर उन्हें विदा कर दिया / २७-तए णं से कणगकेऊ राया आसमद्दए सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! मम आसे विणएह / ' तए णं ते आसमद्दगा तह त्ति पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता ते आसे बहूहि मुहबंधेहि य, कण्णबंधेहि य, णासाबंधेहि य, वालबंधेहि य, खुरबंधेहि य कडगबंधेहि य खलिणबंधेहि य, अहिलाणेहि य, पडया हि य, अंकणाहि य, वेलप्पहारेहि य, वित्तष्पहारेहि य, लयप्पहारेहि य, कसप्पहारेहि य, छिवप्पहारेहि य विणयंति, विणइत्ता कणगकेउस्स रण्णो उवणेति / तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने अश्वमर्दकों (अश्वपालों) को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो ! तुम मेरे अश्वों को विनीत करो-प्रशिक्षित करो।' तब अश्वमर्दकों ने 'बहुत अच्छा' कहकर राजा का आदेश स्वीकार किया / स्वीकार करके उन्होंने उन अश्वों को मुख बाँधकर, कान बाँधकर, नाक बाँधकर, झौंरा (पूछ के बालों का अग्रभाग) बाँधकर, खुर बांधकर, कटक बांधकर, चौकड़ी चढ़ाकर, तोबरा चढ़ाकर, पटतानक (पलान के नीचे का पट्टा) लगा कर, खस्सी करके, वेलाप्रहार करके, बेंतों का प्रहार करके, लताओं का प्रहार करके, चाबुकों का प्रहार करके तथा चमड़े के कोड़ों का प्रहार करके विनीत किया-प्रशिक्षित किया / विनीत करके वे राजा कनककेतु के पास ले आये / २८-तए णं से कणगकेऊ ते आसमद्दए सक्कारेइ, संमाणेइ, सक्कारित्ता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ / तए णं ते आसा बहूहि मुहबंधेहि य जाव छिवप्पहारेहि य बहूणि सारीरमाणसाणि दुक्खाई पाति। तत्पश्चात् कनककेतु ने उन अश्वमर्दकों का सत्कार किया, सन्मान किया। सत्कार-सन्मान करके उन्हें विदा किया। उसके बाद वे अश्व मुखबंधन से यावत् चमड़े के चाबुकों के प्रहार से बहुत शारीरिक और मानसिक दुःखों को प्राप्त हुए। २९-एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा पव्वइए समाणे इठेसु सद्दफरिस-रस-रूव-गंधेसु सज्जति, रज्जति, गिज्झति, मुज्झति, अज्झोववज्जति, से णं इह लोगे चेव बहूणं समणाण य जाव सावियाण य हीलणिज्जे जाव [चाउरंतसंसारकतारं भुज्जो भुज्जो] अणुपरियट्टिस्सइ। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! हमारा जो निग्रंथ या निग्रंथी दीक्षित होकर प्रिय शब्द स्पर्श रस रूप और गंध में गृद्ध होता है, मुग्ध होता है और आसक्त होता है. वह इसी लोक में बहुत श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों तथा श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र होता है, चातुर्गतिक संसारअटवी में पुनः पुनः भ्रमण करता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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