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________________ 478 ] [ ज्ञाताधर्मकथा सहनशील थे। वे अश्व-प्रवर थे, प्रशिक्षण के अनुसार ही गमन करते थे / गड्ढा आदि को लांघने में, कूदने में, दौड़ने में, धोरण अर्थात् गतिचातुर्य में, त्रिपदी-रंगभूमि में मल्ल की-सी गति करने में कुशल थे / न केवल शरीर से हो वरन् मन से भी वे उछल रहे थे। नौकावणिकों आदि ने ऐसे सैकड़ों घोड़े वहाँ देखे / / इस वेढ का अर्थ करने के पश्चात् अन्त में अभयदेवसूरि लिखते हैं-'गमनिकामात्रमेतदस्य वर्णकस्य भावार्थस्तु बहुश्रुतबोध्यः' अर्थात् इस वर्णक का यह अर्थमात्र दिया गया है, भावार्थ तो वहुश्रुत विद्वान् ही जाने / १०-तए णं ते संजत्ताणावावाणियगा अण्णमण्णं एवं वयासो-'किव्ह अम्हे देवाणुप्पिया! आसेहि ? इमे णं बहवे हिरण्णागरा य, सुवण्णागरा य, रयणागरा य, वइरागरा य, तं सेयं खलु अम्हं हिरण्णस्स य, सुवण्णस्स य, रयणस्स य, वइरस्स य पोयबहणं भरित्तए' त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमलैं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता हिरण्णस्स य, सुवण्णस्स य, रयणस्स य, वइरस्स य, तणस्स य, अण्णस्स य, कटुस्स य, पाणियस्स य पोयवहणं भरेंति, भरित्ता पयक्खिणाणुकलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयवहणपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबित्ता सगडीसागडं सज्जेंति, सज्जित्ता तं हिरणं जाव वइरं च एगढियाहि पोयवहणाओ संचारेंति, संचारिता सगडीसागडं संजोइंति, संजोइत्ता जेणेव हत्थिसीसए नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता हस्थिसीसयस्स नयरस्स बहिया अग्गुज्जाणे सत्थणिवेसं करेंति करिता सगडीसागडं मोएंति, मोइत्ता महत्थं जाव [महग्धं महरिहं विउलं रायारिहं] पाहुडं गेण्हति गेण्हित्ता हथिसीसं नयर अणुपविसंति, अणुपविसित्ता जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता जाव उवणेति / __ तब उन सांयात्रिक नौकावणिकों ने आपस में इस प्रकार कहा-'देवानुप्रियो ! हमें अश्वों से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। यहाँ यह बहुत-सी चाँदी की खानें, सोने की खाने, रत्नों की खाने और हीरों की खाने हैं / अतएव हम लोगों को चाँदी-सोने से, रत्नों से और हीरों से जहाज भर लेना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे की बात अंगीकार की। अंगीकार करके उन्होंने हिरण्य से, सुवर्ण से, रत्नों से, हीरों से, घास से, अन्न से, काष्ठों से और मीठे पानी से अपना जहाज भर लिया / भर कर दक्षिण दिशा की अनुकूल वायु से जहाँ गंभीर पोतवहनपट्टन था, वहाँ आये। पाकर जहाज का लंगर डाला। लंगर डाल कर गाड़ी-गाड़े तैयार किये / तैयार करके लाये हुए उस हिरण्य, स्वर्ण यावत् हीरों का छोटी नौकाओं द्वारा संचार किया अर्थात् पोतवहन से गाड़ेगाड़ियों में भरा। फिर गाड़ी-गाड़े जोते। जोतकर जहां हस्तिशीर्ष नगर था वहाँ पहुँचे / हस्तिशीर्ष नगर के बाहर अग्र उद्यान में सार्थ को ठहराया। गाड़ी-गाड़े खोले / फिर बहुमूल्य, [महान् पुरुषों के योग्य, विपुल एवं नृपतियोग्य] उपहार लेकर हस्तिशीर्ष नगर में प्रवेश किया। प्रवेश करके कनककेतु राजा के पास आये / वह उपहार राजा के समक्ष उपस्थित किया। ११---तए णं से कणगकेऊ तेसि संजत्ताणावावाणियगाणं तं महत्थं जाव पडिच्छइ / राजा कनककेतु ने उन सांयात्रिक नौकावणिकों के उस बहुमूल्य [महान् पुरुषों के एवं राजा के योग्य विपुल] उपहार को स्वीकार किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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