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________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [ 455 हयमहियपवर जाव पडिसेहंते / तं पेच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! 'अहं, णो पउमणाभे राय' त्ति कटु पउमनाभेणं रन्ना सद्धि जुज्झामि / रहं दुरूहह, दुरूहित्ता जेणेव पउमनाभे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सेयं गोखीर-हार-घवलं तणसोल्लिय-सिंदुवार-कुदेंदु-सन्निगासं निययबलस्स हरिसजणणं रिउसेण्णविणासकरं पंचजणं संखं परामुसइ, परामुसित्ता मुहवायपूरियं करेइ / पाण्डवों का उत्तर सुनकर कृष्ण वासुदेव ने पांचों पाण्डवों से कहा-देवानुप्रियो ! अगर तुम ऐसा बोले होते कि 'हम हैं, पद्मनाभ राजा नहीं' और ऐसा कहकर पद्मनाभ के साथ युद्ध में जुटते तो पद्मनाभ राजा तुम्हारा हनन नहीं कर सकता था। (तुमने बोलने में भूल की, इसी कारण तुम्हें भाग कर पाना पड़ा।) हे देवानुप्रियो ! अब तुम देखना / 'मैं हूँ, पद्मनाभ राजा नहीं' इस प्रकार कह कर मैं पद्मनाभ के साथ युद्ध करता हूँ। इसके बाद कृष्ण वासुदेव रथ पर आरूढ हुए। आरूढ होकर पद्मनाभ राजा के पास पहुँचे / पहुँच कर उन्होंने श्वेत, गाय के दूध और मोतियों के हार के समान उज्ज्वल, मल्लिका के फूल, मालती-कुसुम, सिन्दुवार-पुष्प, कुन्दपुष्प और चन्द्रमा के समान श्वेत, अपनी सेना को हर्ष उत्पन्न करने वाला पाञ्चजन्य शंख हाथ में लिया और मुख की वायु से उसे पूर्ण किया, अर्थात् फूंका। १८८-तए णं तस्स पउमनाहस्स तेणं संखसद्देणं बल-तिभाए हए जाव' पडिसेहिए / तए णं से कण्हे वासुदेवे धण परामुसइ, वेढो, धणु पूरेइ, पूरित्ता धणुसहं करेइ / तए णं तस्स पउमनाभस्स दोच्चे बल-तिभाए धणुसद्देणं हयमहिय जाव पडिसेहिए। तए णं से पउमनाभे राया तिभागबलावसेसे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारणिज्जं ति कटु सिग्धं तुरियं जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता अमरकंक रायहाणि अणुपविसइ, अणुपविसित्ता दाराइं पिहेइ, पिहित्ता रोहसज्जे चिट्ठइ। तत्पश्चात् उस शंख के शब्द से पद्मनाभ की सेना का तिहाई भाग हत हो गया, यावत् दिशा-दिशा में भाग गया। उसके बाद कृष्ण वासुदेव ने सारंग नामक धनुष हाथ में लिया / यहाँ एक वेढ कह लेना चाहिए / धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई / प्रत्यंचा चढ़ा कर टंकार की। तब पद्मनाभ की सेना का दूसरा तिहाई भाग उस धनुष की टंकार से हत-मथित हो गया यावत् इधर-उधर भाग छूटा / तब पद्मनाभ की सेना का एक तिहाई भाग ही शेष रह गया। अतएव पदमनाभ सामर्थ्यहीन. बलहीन, वीर्यहीन और पुरुषार्थ-पराक्रम से हीन हो गया। वह कृष्ण के प्रहार को सहन करने या निवारण करने में असमर्थ होकर शीघ्रतापूर्वक, त्वरा के साथ, अमरकंका राजधानी में जा घुसा / उसने अमरकंका राजधानी के अन्दर घुस कर द्वार बंद कर लिए / द्वार बंद करके वह नगररोध के लिए सज्ज होकर स्थित हो गया / विवेचन----मूल में आए वेढ (वेष्टक) अर्थ है-एक वस्तुविषयक पदपद्धति / यह वेढ यहाँ धनुषविषयक समझना चाहिए / टीका के अनुसार वह इस प्रकार है अइरुग्गयबालचंद-इंदधणुसन्निगासं वरमहिस-दरिय-दप्पिय-दढघणसिंगग्गरइयसारं, उरगवरपवरगवल-पवरपहुरय-भमरकुल-नीलि निद्ध-धंतधोयपट्ट, निउणोविय-मिसिमिसिंत-मणिरयणघंटिया१. प्र. 16 सूत्र 186. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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