SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 523
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] विवेचन द्रौपदी, छह महीने तक श्रीकृष्ण यदि लेने न आएँ तो पद्मनाभ की आज्ञा मान्य करने की तैयारी बतलाती है / इस तैयारी के पीछे द्रौपदी की मानसिक दुर्बलता या चारित्रिक शिथिलता है, ऐसा किसी को आभास हो सकता है। किन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं / द्रौपदी को कृष्ण के असाधारण सामर्थ्य पर पूरा विश्वास है / वह जानती है कि कृष्णजी आए बिना रह नहीं सकते। इसी कारण उसने पाण्डवों का उल्लेख न करके श्रीकृष्ण का उल्लेख किया। उसकी चारित्रिक दृढता में संदेह करने का कोई कारण नहीं है। सूत्रकार ने देवता के मुख से भी यही कहलवा दिया है कि द्रौपदी पाण्डवों के सिवाय अन्य पुरुष की कामना त्रिकाल में भी नहीं कर सकती / वह तो किसी युक्ति से श्रीकृष्ण के आने तक समय निकालना चाहती थी। उसकी युक्ति काम कर गई। उधर पद्मनाभ ने बड़ी सरलता से द्रौपदी की बात मान्य कर ली / इसका कारण उसका यह विश्वास रहा होगा कि कहाँ जम्बूद्वीप और कहाँ धातकीखंडद्वीप ! दोनों द्वीपों के बीच दो लाख योजन के महान् विस्तार वाला लवणसमुद्र है। प्रथम तो श्रीकृष्ण को पता ही नहीं चलेगा कि द्रौपदी कहाँ है ! पता भी चल गया तो उनका यहाँ पहुँचना असंभव है / अपने इस विश्वास के कारण पद्मनाम ने द्रौपदी की शर्त आनाकानी किए बिना स्वीकार कर ली / इसके अतिरिक्त कामान्ध पुरुष की विवेकशक्ति भी नष्ट हो जाती है। द्रौपदी की गवेषणा १५७-तए णं से जुहिट्ठिले राया तओ मुहत्तंतरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवई देवि पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उठेइ, उत्तिा दोवईए देवीए सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करित्ता दोवईए देवोए कत्थइ सुई वा खुइं वा पवित्ति वा अलभमाणे जेणेव पंडुराया तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता पंडुरायं एवं वयासी इधर द्रौपदी का हरण हो जाने के पश्चात्, थोड़ी देर में युधिष्ठिर राजा जागे 1 वे द्रौपदी देवी को अपने पास न देखते हुए शय्या से उठे। उठकर सब तरफ द्रौपदी देवी की मार्गणा-गवेषणा करने लगे / किन्तु द्रौपदी देवी की कहीं भी श्रुति (शब्द) क्षुति (छींक वगैरह) या प्रवृत्ति (खबर) न पाकर जहाँ पाण्डु राजा थे वहाँ पहुँचे / वहाँ पहुँचकर पाण्डु राजा से इस प्रकार बोले-~ १५८-~-एवं खलु ताओ ! ममं आगासतलगंसि पसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न णज्जइ केणइ देवेण वा, दाणवेन वा, किन्नरेण वा, महोरगेण वा गंधब्वेण वा, हिया वा, णीया वा, अवक्खित्ता वा ? इच्छामि णं ताओ ! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए / हे तात ! मैं आकाशतल (अगासी) पर सो रहा था। मेरे पास द्रौपदी देवी को न जाने कौन देव, दानव, किन्नर, महोरग अथवा गंधर्व हरण कर गया, ले गया या खींच ले गया ! तो हे तात ! मैं चाहता हूँ कि द्रौपदी देवी की सब तरफ मार्गणा की जाय / / १५९-तए णं से पंडुराया कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया ! हस्थिणाउरे नयरे सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-महापह-पहेसु महया महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वदह–'एवं खलु देवाणुप्पिया ! जुहिडिल्लस्स रण्णो आगासतलगंसि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy