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________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [ 439 चित्त में असमाधि उत्पन्न करते थे। ऐसे वह नारद तीन लोक में बलवान् श्रेष्ठ दसारवंश के वीर पुरुषों से वार्तालाप करके, उस भगवती (पूज्य) प्राकाम्य नामक विद्या का, जिसके प्रभाव से आकाश में गमन किया जा सकता था, स्मरण करके उड़े और आकाश को लांघते हुए हजारों ग्राम, प्राकर (खान), नगर, खेट, कर्बट, मडंव, द्रोणमुख, पट्टन और संबाध से शोभित और भरपूर देशों से व्याप्त पृथ्वी का अवलोकन करते-करते रमणीय हस्तिनापुर में आये और बड़े वेग के साथ पाण्डु राजा के महल में उतरे। १४०-तए णं से पंडुराया कच्छुल्लनारयं एन्जमाणं पासइ, पासित्ता पंचहि पंडवेहि कुतोए य देवीए सद्धि आसणाओ अन्भुढेइ, अन्भुद्विता कच्छुल्लनारयं सत्तटुपयाई पच्चुग्गच्छइ, पच्चुग्गच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदह, णमंमइ, वंदित्ता णमंसित्ता महरिहेणं आसणेणं उवणिमंतेइ। उस समय पाण्डु राजा ने कच्छुल्ल नारद को प्राता देखा / देख कर पाँच पाण्डवों तथा कुन्ती देवी सहित वे अासन से उठ खड़े हुए। खड़े होकर सात-आठ पैर कच्छुल्ल नारद के सामने गये / सामने जाकर तीन बार दक्षिण दिशा से प्रारम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वंदन किया, नमस्कार किया / बन्दन-नमस्कार करके महान् पुरुष के योग्य अथवा बहुमूल्य आसन ग्रहण करने के लिए आमंत्रण किया / 141- तए णं से कच्छुल्लनारए उदगपरिफोसियाए दभोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए णिसीयइ, णिसीइत्ता पंडुरायं रज्जे जाव [य रठे य कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य] अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छइ। तए णं से पंडुराया कोंति देवी पंच य पंडवा कच्छुल्लणारयं आढायंति जाव [परियाणंति अम्भुट्ठति] पज्जुवासंति / / तत्पश्चात् उन कच्छुल्ल नारद ने जल छिड़ककर और दर्भ बिछाकर उस पर अपना प्रासन बिछाया और वे उस पर बैठे। बैठ कर पाण्डु राजा, राज्य यावत् [राष्ट्र, कोष, कोठार, बल, वाहन, नगर और] अन्तःपुर के कुशल-समाचार पूछे / उस समय पाण्डु राजा ने, कुन्ती देवी ने और पाँचों पाण्डवों ने कच्छुल्ल नारद का खड़े होकर आदर-सत्कार किया / उनकी पर्युपासना की। 142- तए णं सा दोवई देवी कच्छुल्लनारयं अस्संजयं अविरयं अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मं ति कटु नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुढेइ, नो पज्जुवासइ / ___ किन्तु द्रौपदी देवी ने कच्छुल्ल नारद को असंयमी, अविरत तथा पूर्वकृत पापकर्म का निन्दादि द्वारा नाश न करने वाला तथा आगे के पापों का प्रत्याख्यान न करने वाला जान कर उनका पादर नहीं किया, उनके ग्रागमन का अनुमोदन नहीं किया, उनके आने पर वह खड़ी नहीं हुई / उसने उनकी उपासना भी नहीं की। द्रौपदी पर नारद का रोष १४३-तए णं तस्स कच्छुल्लणारयस्स इमेयासवे अज्झथिए चितिए पत्थिए मणोगए संकप्पे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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