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________________ 420 ] [ ज्ञाताधर्मकथा अप्पवसा, जया णं अहं मुडे भवित्ता पब्वइया, तया णं अहं परवसा, पुद्धि च णं ममं समणीओ आढायंति, इयाणि नो आढायंति, तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए गोवालियाणं अंतियाओ पडिणिक्खमित्ता पाडिएक्कं उवस्सगं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संहिता कल्लं पाउपभायाए गोवालियाणं अज्जाणं अंतियाओ पडिमिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता पाडिएक्कं उवस्सगं उवसंपज्जित्ता णं बिहरइ / निर्ग्रन्थ श्रमणियों द्वारा अवहेलना की गई और रोकी गई उस सुकुमालिका के मन में इस प्रकार का विचार यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुअा-'जब मैं गृहस्थवास में वसती थी, तब मैं स्वाधीन थी। जब मैं मुडित होकर दीक्षित हई तब मैं पराधीन हो गई। पहले ये श्रमणियाँ मेरा आदर करती थीं किन्तु अब आदर नहीं करती हैं। अतएव कल प्रभात होने पर गोपालिका के पास से निकलकर, अलग उपाश्रय (स्थान) में जा करके रहना मेरे लिए श्रेयस्कर होगा,' उसने ऐसा विचार किया। विचार करके कल (दूसरे दिन) प्रभात होने पर गोपालिका आर्या के पास से निकल गई / निकलकर अलग उपाश्रय में जाकर रहने लगी। निधन : स्वर्गप्राप्ति ७९-तए णं सा सूमालिया अज्जा अणोहट्टिया अनिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवेइ, जाव' चेएइ, तत्थ वि य णं पासत्था, पासथविहारी, ओसण्णा ओसण्णविहारी, कुसोला कुसोलविहारी संसत्ता, संमत्तविहारी बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ, अद्धमासियाए संलेहणाए तस्स ठाणस्स अणालोइय-अपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे अण्णयरंसि विमाणंसि देगणियत्ताए उववण्णा। तत्थेगइयाणं देवीणं नव पलिओवमाइं ठिई पण्णता, तत्थ णं सूमालियाए देवीए नव पलिओवमाइं ठिई पन्नत्ता। ___ तत्पश्चात् कोई हटकने मना करने वाला न होने से एवं रोकने वाला न होने से सुकुमालिका स्वच्छंदबुद्धि होकर बार-बार हाथ धोने लगी यावत् जल छिड़ककर कायोत्सर्ग प्रादि करने लगी। तिस पर भी वह पार्श्वस्थ अर्थात् शिथिलाचारिणी हो गई ! पावस्थ की तरह विहार करने-रहने लगी / वह अवसन्न हो गई अर्थात् ज्ञान दर्शन और चारित्र के विषय में आलसी हो गई और आलस्यमय विहार वाली हो गई / कुशीला अर्थात् अनाचार का सेवन करने वाली और कुशीलों के समान व्यवहार करने वाली हो गई / संसक्ता अर्थात् ऋद्धि रस और साता रूप गौरवों में प्रासक्त और संसक्त विहारिणी हो गई / इस प्रकार उसने बहुत वर्षों तक साध्वी-पर्याय का पालन किया / अन्त में अर्ध मास की संलेखना करके, अपने अनुचित प्राचरण की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल-मास में काल करके, ईशान कल्प में, किसी विमान में देवगणिका के रूप में उत्पन्न हुई / वहाँ किन्हीं-किन्हों देवियों की नौ पल्योपम की स्थिति कही गई है / सुकुमालिका देवी की भी नौ पल्योपम की स्थिति हुई। द्रौपदी-कथा ८०--तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे पंचालेसु जणवएसु कंपिल्लपुरे 1. अ. 16 सूत्र 75. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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