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________________ [413 सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] प्रवेश करना, विषभक्षण करना, अपने शरीर को श्मशान में या जंगल में छोड़ देना कि जिससे जानवर या प्रेत खा जाएँ, गध्र-पष्ठ मरण (हाथी आदि के मुर्दे में प्रवेश कर जाना कि जिससे गीध आदि खा जाएँ), इसी प्रकार दीक्षा ले लेना या परदेश में चला जाना स्वीकार है, परन्तु मैं निश्चय ही सागरदत्त के घर नहीं जाऊँगा।' ५८–तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे कुड्डतरिए सागरस्स एयमझें निसामेइ, निसामित्ता लज्जिए विलीए विड्डे जिणदत्तस्स गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमालियं दारियं सहावेइ, सद्दावित्ता अंके निवेसेइ, निवेसित्ता एवं वयासी 'किं णं तव पुत्ता ! सागरएणं दारएणं मुक्का! अहं णं तुमं तस्स दाहामि जस्स णं तुमं इट्ठा जाव मणामा भविस्ससि' त्ति सूमालियं दारियं ताहि इटाहि वग्गूहि समासासेइ, समासासित्ता पडिविसज्जेइ। उस समय सागरदत्त सार्थवाह ने दीवार के पीछे से सागर पुत्र के इस अर्थ को सुन लिया। सुनकर वह ऐसा लज्जित हुया कि धरती फट जाय तो मैं उसमें समा जाऊँ / वह जिनदत्त के घर से बाहर निकल आया। निकलकर अपने घर आया / घर आकर सुकुमालिका पुत्री को बुलाया और उसे अपनी गोद में बिठलाया। फिर उसे इस प्रकार कहा----- _ 'हे पुत्री ! सागर दारक ने तुझे त्याग दिया तो क्या हो गया ? अब तुझे मैं ऐसे पुरुष को दूगा, जिसे तू इष्ट, कान्त. प्रिय और मनोज्ञ होगी।' इस प्रकार कहकर सुकुमालिका पुत्री को इष्ट वाणी द्वारा ग्राश्वासन दिया। ग्राश्वासन देकर उसे विदा किया। सुकुमालिका का पुनर्विवाह ५९-तए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे अन्नया उपि आगासतलगंसि सुहनिसण्णे रायमग्गं आलोएमाणे आलोएमाणे चिट्ठइ / तए णं से सागरदत्ते एग महं दमगपुरिसं पासइ, दंडिखंडनिवसणं खंडमल्लग-खंडघडगहत्थगयं फुट्टहडाहडसीसं मच्छियासहस्सेहि जाव अग्निज्जमाणमग्गं / तत्पश्चात् सागरदत्त सार्थवाह किसी समय ऊपर भवन की छत पर सुखपूर्वक बैठा हुया बार-बार राजमार्ग को देख रहा था / उस समय सागरदत्त ने एक अत्यन्त दीन भिखारी पुरुष को देखा / वह साँधे हुए टुकड़ों का वस्त्र पहने था / उसके हाथ में सिकोरे का टुकड़ा और पानी के घड़े का टुकड़ा था / उसके बाल बिखरे हुए....अस्तव्यस्त थे। हजारों मक्खियाँ उसके मार्ग का अनुसरण कर रही थीं-उसके पीछे भिनभिनाती हुई उड़ रही थीं। ६०-तए णं से सागरदत्ते कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ सदावित्ता एवं वयासी--'तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! एयं दमगपुरिसं विउलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पलोभेह, पलोभित्ता गिहं अणुप्पवेसेह, अणुप्पवेसित्ता खंडगमल्लगं खंडघडगं च से एगते एडेह, एडित्ता अलंकारियकम्मं कारेह, कारिता हणयं कयबलिकम्मं जाव सवालंकारविभूसियं करेह, करित्ता मणुण्णं असणं पाणं खाइमं साइमं भोयावेह, भोयावित्ता मम अंतियं उवणेह / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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