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________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [407 गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता हाए जाव मित्तनाइपरिवुडे चंपाए नयरीए मज्झमज्झणं जेणेव सायरवत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छद / तए णं सागरदत्ते सत्यवाहे जिणदत्तं सत्थवाहं एज्जमाणं पासइ, एज्जमाणं पासइत्ता आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुद्वित्ता आसणेणं उणिमंतेइ, उवणिमंतित्ता आसत्यं वीसत्यं सुहासणवरगयं एवं वयासो-'भण देवाणुप्पिया ! किमागमणपओयणं?' जिनदत्त सार्थवाह उन कौटु म्बिक पुरुषों से इस अर्थ (बात) को सुन कर अपने घर चला गया। फिर नहा-धोकर तथा मित्रजनों एवं ज्ञातिजनों आदि से परिवृत होकर चम्पा नगरी के मध्यभाग में होकर वहाँ आया जहाँ सागरदत्त का घर था / तब सागरदत्त सार्थवाह ने जिनदत्त सार्थवाह को आता देखा / आता देख कर वह आसन से उठ खड़ा हुआ / उठ कर उसने जिनदत्त को प्रासन ग्रहण करने के लिए निमंत्रित किया। निमंत्रित करके विधान्त एवं विश्वस्त हुए तथा सुखद प्रासन पर आसीन हुए जिनदत्त से पूछा--'कहिए देवानुप्रिय ! आपके आगमन का क्या प्रयोजन है ?' ४१--तए णं से जिणदत्ते सत्थबाहे सागरदत्तं सस्थवाहं एवं वयासी--‘एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! तव धूयं भद्दाए अत्तियं सूमालियं सागरदत्तस्स भारियत्ताए बरेमि / जइ णं जाणह देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पुत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो, ता दिज्जउ णं सूमालिया सागरस्स / तए णं देवाणुप्पिया! किं दलयामो सुकं सूमालियाए ?' तब जिनदत्त सार्थवाह ने सागरदत्त सार्थवाह से कहा-'देवानुप्रिय ! मैं आपकी पुत्री, भद्रा सार्थवाही की पात्मजा सुकुमालिका की सागरदत्त की पत्नी के रूप में मँगनी करता हूँ। देवानुप्रिय ! अगर आप यह युक्त समझे, पात्र समझे, श्लाघनीय समझे और यह समझे कि यह संयोग समान है, तो सुकुमालिका सागरदत्त को दीजिए। अगर आप यह संयोग इष्ट समझते हैं तो देवानुप्रिय ! सुकुमालिका के लिए क्या शुल्क दें ?' ४२--तए णं से सागरदत्ते तं जिणदत्तं एवं वयासो-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! सूमालिया दारिया मम एगा एगजाया इट्ठा जाब किमंग पुण पासणयाए ? तं नो खलु अहं इच्छामि सूमालियाए दारियाए खणमवि विप्पओगं / तं जइ णं देवाणुप्पिया ! सागरदारए मम घरजामाउए भवइ, तो णं अहं सागरस्स सूमालियं दलयामि।' उत्तर में सागरदत्त ने जिनदत्त से इस प्रकार कहा- 'देवानुप्रिय ! सुकुमालिका पुत्री हमारी एकलौती सन्तति है, एक ही उत्पन्न हुई है, हमें प्रिय है। उसका नाम सुनने से भी हमें हर्ष होता है तो देखने की तो बात ही क्या है ? अतएव देवानुप्रिय! मैं क्षण भर के लिए भी सुकुमालिका का वियोग नहीं चाहता / देवानुप्रिय ! यदि सागर हमारा गृह-जामाता (घर-जमाई) बन जाय तो मैं सागर दारक को सुकुमालिका दे दूं।' ४३--तए णं जिणदत्ते सत्थवाहे सागरदत्तेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्ते समाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरदारगं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासो-'एवं खलु ! सागरदत्ते सत्यवाहे ममं एवं वयासी-एबं खलु देवाणुप्पिया ! सूमालिगा दारिया इट्ठा, तं चेव, तं जइ णं सागरदत्तए मम घरजामाउए भवइ ता दलयामि / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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