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________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [403 थे, ऐसी वह नागश्री घर-घर देहबलि (अपने-अपने घरों पर फैकी हुई बलि) के द्वारा अपनी जीविका चलाती हुई-पेट पालती हुई भटकने लगी। २९-तए णं तोसे नागसिरोए माहणीए तब्भवंसि चेव सोलसरोगायंका पाउन्भूया, तंजहासासे कासे जोणिसूले जाव कोढे / तए णं नागसिरी माहणी सोलसेहि रोगायंकेहि अभिभूया समाणी अट्टदुहट्टक्सट्टा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्सोसेणं बावीससागरोवमठिइएसु नरएसु नेरइयत्ताए उववन्ना। तदनन्तर उस नागश्री ब्राह्मणी को उसी (वर्तमान) भव में सोलह रोगातक उत्पन्न हुए / वे इस प्रकार-श्वास, कास योनिशूल यावत् कोढ़' / तत्पश्चात् नागश्री ब्राह्मणी सोलह रोगातकों से पीडित होकर अतीव दुःख के वशीभूत होकर, कालमास में काल करके छठी पृथ्वी (नरकभूमि) में उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की स्थिति वाले नारक के रूप में उत्पन्न हुई। ३०-सा णं तओऽणंतरं उव्वद्वित्ता मच्छेसु उन्वन्ना, तत्थ णं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमीए पुढवीए उक्कोसाए तित्तीससागरोवमठिइएसु नेरइएसु उववन्ना। तत्पश्चात् नरक से सीधी निकल कर वह नागश्री मत्स्ययोनि में उत्पन्न हुई। वहाँ वह शस्त्र से वध करने योग्य हुई.--उसका वध शस्त्र से किया गया / अतएव दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल करके, नीचे सातवीं पृथ्वी (नरकभूमि) में उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारक पर्याय में उत्पन्न हुई। ३१-सा णं तओऽणंतरं उध्वट्टित्ता दोच्चं पि मच्छेसु उववज्जइ, तत्थ वि य णं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए दोच्चं पि अहे सत्तमीए पुढवीए उक्कोसं तेतीससागरोवमठिइएसु नेरइएसु उववज्जइ। तत्पश्चात् नागश्री सातवीं पृथ्वी से निकल कर सीधी दूसरी बार मत्स्ययोनि में उत्पन्न हुई। वहाँ भी उसका शस्त्र से वध किया गया और दाह की उत्पत्ति होने से मृत्यु को प्राप्त होकर पुनः नीचे सातवीं पृथ्वी में उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की आयु वाले नारकों में उत्पन्न हुई। ३२-सा णं तओहितो जाव उध्वट्टित्ता तच्चं पि मच्छेसु उववन्ना, तत्थ वि य णं सत्थवज्झा जाव कालं किच्चा दोच्चं पि छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमठिइएसु नरएसु उववन्ना। सातवीं पृथ्वी से निकल कर तीसरी बार भी मत्स्ययोनि में उत्पन्न हुई। वहाँ भी वह शस्त्र से वध करने योग्य हुई / यावत् काल करके दूसरी बार छठी पृथ्वी में बाईस सागरोपम की उत्कृष्ट आयु वाले नारकों में नारक रूप में उत्पन्न हुई। 33-- तओऽणंतरं उट्टित्ता उरएसु, एवं जहा गोसाले तहा नेयव्वं जाव रयणप्पहाए सत्तसु उववन्ना / तओ उववट्टित्ता जाव इमाई खहयरविहाणाइं जाव अदुत्तरं च णं खरबायरपुढविकाइयत्ताए तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो। 1. देखो नन्दन मणियार अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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