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________________ 386] [ज्ञाताधर्मकथा देश के बीचोंबीच होकर देश की सीमा पर जा पहुँचा। वहाँ पहुँच कर गाड़ी-गाड़े खोले / पड़ाव डाला / फिर कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर इस प्रकार कहाउपयोगी चेतावनी ९–'तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! मम सत्यनिवेसंसि महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवं वदह एवं खलु देवाणुप्पिया ! इमोसे आगामियाए छिनावायाए दोहमद्धाए अडवीए बहुमज्झदेसभाए बहवे णंदिफला नामं रुक्खा पन्नत्ता-किण्हा जाव पत्तिया पुफिया फलिया हरिया रेरिज्जमाणा सिरीए अईव अईव उसोभेमाणा चिट्ठति, मणुण्णा वन्नेणं, मणुण्णा गंधेणं, मणुण्णा रसेणं, मणुष्णा फासेणं, मणुष्णा छायाए, तं जो णं देवाणुप्पिया! तेसि नंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंदाणि वा तयाणि वा पत्ताणि वा पुप्फाणि वा फलाणि वा बीयाणि वा हरियाणि वा आहारेइ, छायाए वा वीसमइ, तस्स णं आवाए भद्दए भवइ, ततो पच्छा परिणममाणा परिणममाणा अकाले चेव जीवियाओ ववरोति / तं मा णं देवाणुप्पिया! केइ तेसि नंदिफलाणं मूलाणि वा जाव छायाए वा वीसमउ मा णंसे ऽवि अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जस्सइ / तुबभे णं देवाणप्पिया! अन्नेसि रुक्खाणं मूलाणि य जाव हरियाणि य आहारेइ, छायासु वीसमह, त्ति घोसणं घोसेह / ' जाव पच्चप्पिणंति / 'देवानुप्रियो ! तुम मेरे सार्थ के पड़ाव में ऊँचे-ऊँचे शब्दों से बार-बार उद्घोषणा करते हुए ऐसा कहो कि--- हे देवानुप्रियो ! आगे आने वाली अटवी में मनुष्यों का आवागमन नहीं होता और वह बहुत लम्बी है / उस अटवी के मध्य भाग में 'नन्दीफल' नामक वृक्ष हैं / वे गहरे हरे (काले) वर्ण वाले यावत् पत्तों वाले, पुष्पों वाले, फलों वाले, हरे, शोभायमान और सौन्दर्य से अतीव-अतीव शोभित हैं / उनका रूप-रंग मनोज्ञ है यावत् (रस, गंध) स्पर्श मनोहर है और छाया भी मनोहर है। किन्तु हे देवानुप्रियो ! जो कोई भी मनुष्य उन नन्दीफल वृक्षों के मूल, कंद, छाल, पत्र, पुष्प, फल, बीज या हरित का भक्षण करेगा अथवा उनकी छाया में भी बैठेगा, उसे आपाततः (थोड़ी-सी देर-क्षण भर) तो अच्छा लगेगा, मगर बाद में उनका परिणमन होने पर अकाल में ही वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। अतएव हे देवानुप्रियो ! कोई उन नंदीफलों के मूल आदि का सेवन न करे यावत् उनकी छाया में विश्राम भी न करे, जिससे अकाल में ही जीवन का नाश न हो / हे देवानुप्रियो ! तुम दूसरे वृक्षों के मूल यावत् हरित का भक्षण करना और उनकी छाया में विश्राम लेना / इस प्रकार की प्राघोषणा कर दो / मेरी आज्ञा वापिस लौटा दो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने आज्ञानुसार घोषणा करके अाज्ञा वापिस लौटा दी / १०-तए णं धण्णे सत्यवाहे सगडीसागडं जोएइ, जोइत्ता जेणेव नंदिफला रुक्खा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेसि नंदिफलाणं अदूरसामंते सस्थनिवेसं करेइ, करित्ता दोच्च पि तच्चं पि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं क्यासी–तुम्भे णं देवाणुप्पिया ! मम सस्थनिवेसंसि महया। महया सद्देणं उग्धोसेमाणा उग्धोसेमाणा एवं वयह-'एए णं देवाणुप्पिया ! ते णंदिफला किण्हा जाव मणुष्णा छायाए, तं जो णं देवाणुप्पिया ! एएसि गंदिफलाणं रुक्खाणं मूलाणि वा कंदाणि वा पुप्फाणि वा तयाणि वा पत्ताणि वा फलाणि वा जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोति तं, मा णं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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