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________________ चौदहवां अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [ 379 तत्पश्चात् तेतलिपुत्र को शुभ परिणाम उत्पन्न होने से, जातिस्मरण ज्ञान की प्राप्ति हुई / तब तेतलिपुत्र के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुा-निश्चय ही मैं इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी राजधानी में महापद्म नामक राजा था। फिर मैंने स्थविर मुनि के निकट मुण्डित होकर यावत् (दीक्षा अंगीकार करके सामयिक से लेकर) चौदह पूर्वो का अध्ययन करके, बहुत वर्षों तक श्रमणपर्याय (चारित्र) का पालन करके, अन्त में एक मास को संलेखना करके, महाशुक्र कल्प में देव रूप से जन्म लिया। ५४--तए णं अहं ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं इहेव तेयलिपुरे तेयलिस्स अमच्चस्स भद्दाए भारियाए दारगत्ताए पच्चायाए / तं सेयं खलु मम पुवुद्दिढाई महत्वयाई सयमेव उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता सयमेव महव्वयाइं आरहेइ, आरुहित्ता जेणेव पमयवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि सुहनिसन्नस्स अणुचितेमाणस्स पुग्वाहीयाइं सामाइयमाइयाई चोद्दसपुव्वाइं सयमेव अभिसमन्नागयाई / तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स अणगारस्स सुभेणं परिणामेणं जाव पसत्थेणं अज्झवसाएणं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं कम्मरविकरणकरं अपुव्वकरणं पविट्ठस्स केवलवरणाणदंसणे समुप्पन्ने / तत्पश्चात् प्रायु का क्षय होने पर मैं उस देवलोक से (च्यवन करके) यहाँ तेतलिपुर में तेतलि अमात्य की भद्रा नामक भार्या के पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। अत: मेरे लिए, पहले स्वीकार किये हुए महाव्रतों को स्वयं ही, अंगीकार करके विचरना श्रेयस्कर है। ऐसा तेतलिपुत्र ने विचार किया। विचार करके स्वयं ही महाव्रतों को अंगीकार किया। अंगीकार करके जिधर प्रमदवन उद्यान था, उधर पाया। प्राकर श्रेष्ठ अशोक वृक्ष के नीचे, पृथ्वीशिलापट्टक पर सुखपूर्वक बैठे हुए और विचारणा करते हुए उसे पहले अध्ययन किये हुए चौदह पूर्व स्वयं ही स्मरण हो पाए। / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अनगार ने शुभ परिणाम से यावत् (प्रशस्त अध्यवसाय से तथा लेश्याओं की विशुद्धि होने से) तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम से, कर्मरज का नाश करने वाले अपूर्वकरण में प्रवेश करके अर्थात् क्षपकश्रेणी प्रारम्भ करके और चार घातिकर्मों का क्षय करके उत्तम केवलज्ञान तथा केवलदर्शन प्राप्त किये। ५५–तए णं तेतलिपुरे नगरे अहासंनिहिएहि देवेहिं देवोहि य देवदुदुभीओ समाहयाओ, दसद्धवन्ने कुसुमे निव्वाए, दिब्वे गीय-गंधवनिनाए कए यावि होत्था / उस समय तेतलिपुर नगर के निकट रहे हुए वाण-व्यन्तर देवों और देवियों ने देवदुंदुभियाँ बजाई / पाँच वर्ण के फूलों की वर्षा की और दिव्य गीत-गन्धर्व का निनाद किया अर्थात् केवलज्ञान सम्बन्धी महोत्सव मनाया / ५६-तए णं से कणगझए राया इमोसे कहाए लद्धठे समाणे एवं वयासो—'एवं खलु सेयलिपुत्ते मए अवज्झाए मुडे भवित्ता पन्वइए, तं गच्छामि णं तेयलिपुत्तं अणगारं वदामि नमसामि, बंदित्ता नमंसित्ता एयमझें विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेमि / ' एवं संपेहेइ, संपेहिता हाए चाउरंगिणीए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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