SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ज्ञाताधर्म कथा दिनों की स्थितिपतिका करो-पुत्रजन्म का उत्सव करो / यह सब करके मेरी आज्ञा मुझे वापिस सौंपो। हमारा यह बालक राजा कनकरथ के राज्य में उत्पन्न हुआ है, अतएव इस बालक का नाम कनकध्वज हो, धीरे-धीरे वह बालक बड़ा हुआ, कलानों में कुशल हुया, यौवन को प्राप्त होकर भोग भोगने में समर्थ हो गया / २६-तए णं सा पोट्टिला अन्नया कयाई तेयलिपुत्तस्स अणिद्वा जाया यावि होत्था, णेच्छइ य तेयलिपुत्ते पोट्टिलाए नामगोत्तमवि सवणयाए, कि पुण दरिसणं वा परिभोग वा ? ___ तए णं तीसे पोट्टिलाए अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था--'एवं खलु अहं तेलिपुत्तस्स पुब्धि इट्टा आसि, इयाणि अणिट्ठा जाया, नेच्छइ य लेयलिपुत्ते मम नामं जाव परिभोगं वा / ' ओहयमणसंकप्पा जाव [करयलपल्हत्थमुही / अदृशाणोवगया] झियाया। तत्पश्चात् किसी समय पोट्टिला, तेतलिपुत्र को अप्रिय हो गई / तेतलिपुत्र उसका नाम-गोत्र भी सुनना पसन्द नहीं करता था, तो दर्शन और परिभोग की तो बात ही क्या ? तब एक बार मध्यरात्रि के समय पोट्टिला के मन में यह विचार प्राया-'तेतलिपुत्र को मैं पहले प्रिय थी, किन्तु अाजकल अप्रिय हो गई हैं। अतएव तेतलिपुत्र मेरा नाम भी नहीं सुनना चाहते, तो यावत् परिभोग तो चाहेंगे ही क्या ?' इस प्रकार, जिसके मन के संकल्प नष्ट हो गये हैं ऐसी वह पोट्टिला [ हथेली पर मुख रखकर आर्तध्यान करने लगी ] चिन्ता में डूब गई। २७-तए णं तेयलिपुत्ते पोटिलं ओहयमणसंकप्पं जाव' झियायमाणि पासइ, पासित्ता एवं वयासी—'मा णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहयमणसंकप्पा, तुमं णं मम महाणसंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेहि, उवक्खडावित्ता बहूणं समणमाहण जाव अतिहि-किवण-वणीमगाणं देयमाणी य दवावेमाणी या तए णं सा पोट्टिला तेलिपुत्तेणं एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठा तेयलिपुत्तस्स एयमळं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता कल्लाकल्लि महाणसंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जाव उवक्खडावेइ, उवक्खडावेत्ता बहूणं समण-माहण-अतिहि-किवण-वणीमगाणं देयमाणो य दवावेमाणी य विहरइ / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने भग्नमनोरथा पोटिला को चिन्ता में डबी देखकर इस प्रकार कहा-. 'देवानुप्रिये ! भग्नमनोरथ मत होो / तुम मेरी भोजनशाला में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार तैयार करवाप्रो और करवा कर बहत-से श्रमणों ब्राह्मणों अतिथियों और भिखारियों को दान देती-दिलाती हुई रहा करो।' _तेतलिपुत्र के ऐसा कहने पर पोट्टिला हर्षित और संतुष्ट हुई। तेतलिपुत्र के इस अर्थ (कथन) को अंगीकार करके प्रतिदिन भोजनशाला में वह विपुल अशन पान खादिम और स्वादिम तैयार करवा कर श्रमणों ब्राह्मणों अतिथियों और भिखारियों को दान देती और दिलाती रहती थी--अपना काल यापन करती थी। 1. अ. 14 सूत्र 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy