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________________ 362 ] [ ज्ञाताधर्मकथा करित्ता पोट्टिलाए भारियाए मित्तःणाइ-णियग-सयण-संबंधि-परिजणं विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पुप्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पोट्टिला दारिका को भार्या के रूप में आई हुई देखी / देखकर वह पोट्टिला के साथ पट्ट पर बैठा / बैठ कर श्वेत-पीत (चांदी-सोने के) कलशों से उसने स्वयं स्नान किया। स्नान करके अग्नि में होम किया / तत्पश्चात् पोट्टिला भार्या के मित्रजनों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, संबंधियों एवं परिजनों का प्रशन पान खादिम स्वादिम से तथा पुष्प वस्त्र गंध माला और अलंकार आदि से सत्कार-सम्मान करके उन्हें विदा किया। १४–तए णं से तेयलिपुत्ते, पोट्टिलाए भारियाए अणुरत्ते अविरत्ते उरालाई जाव [माणुस्साई भोगभोगाई भुजमाणे] विहरइ / तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अमात्य पोट्टिला भार्या में अनुरक्त होकर, अविरक्त-आसक्त होकर उदार यावत् [मानव संबधी भोगने योग्य भोग भोगता हुआ रहने लगा। 15- तए णं से कणगरहे राया रज्जे य रठे य बले य वाहणे य कोसे य कोट्टागारे य अंतेउरे य मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववण्णे जाए जाए पुत्ते वियंगेइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुलियाओ छिदइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुट्ठए छिदइ, एवं पायंगुलियाओ पायंगुट्ठए वि कन्नसक्कुलीए वि नासापुडाई फालेइ, अंगमंगाई वियंगेइ। कनकरथ राजा राज्य में, राष्ट्र में, बल (सेना में), वाहनों में, कोष में, कोठार में तथा अन्तःपुर में अत्यन्त आसक्त था, लोलुप-गृद्ध और लालसामय था। अतएव वह जो जो पुत्र उत्पन्न होते उन्हें विकलांग कर देता था। किन्हीं की हाथ की अंगुलियाँ काट देता, किन्हीं के हाथ का अंगूठा काट देता, इसी प्रकार किसी के पैर की अंगुलियाँ, पैर का अंगूठा, कर्णशष्कुली (कान की पपड़ी) और किसी का नासिकापुट काट देता था। इस प्रकार उसने सभी पुत्रों को अवयवविकल-विकलांग कर दिया था। विवेचन--कनकरथ को भय था कि यदि मेरा कोई पुत्र वयस्क हो गया तो संभव है वह मुझे सत्ताच्युत करके स्वयं राजसिंहासन पर आसीन हो जाए। मगर विकलांग पुरुष राजसिंहासन का अधिकारी नहीं हो सकता था। अतएव वह अपने प्रत्येक पुत्र को अंगहीन बना देता था। राज्यलोलुपता अथवा सत्ता के प्रति आसक्ति जब अपनी सीमा का उल्लंघन कर जाती है तब कितनी अनर्थजनक हो जाती है और सत्तालोलुप मनुष्य को अधःपतन की किस सीमा तक ले जाती है, कनकरथ राजा इस सत्य का ज्वलंत उदाहरण है / राज्यलोभ ने उसे विवेकान्ध बना दिया था और वह मानो स्वयं को अजर-अमर मान रहा था। १६-तए णं तीसे पउमावईए देवीए अन्नया पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूवे अज्झस्थिए समुप्पज्जित्था-'एवं खलु कणगरहे राया रज्जे य जाव' पत्ते वियंगेइ जावर अंगमंगाई वियंरोड, तं जइ अहं दारयं पयायामि, सेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव सारक्खमाणोए 1. अ. 14 सूत्र 15 2. प्र. 14 सूत्र 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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