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________________ बारहवां अध्ययन : उदक ] [ 325 तब सुबुद्धि अमात्य इस कथन का समर्थन न करता हुमा मौन रहा / १३-तए णं से जियसत्तू राया सुबुद्धि अमच्चं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासो-- 'अहो णं तं चेव।' तए णं से सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तुणा रण्णा दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते समाणे एवं वयासी—'नो खलु सामी ! अम्हं एयंसि फरिहोदयंसि केइ विम्हए / एवं खलु सामी ! सुब्भिसद्दा वि पोग्गला दुभिसद्दत्ताए परिणमंति, तं चेव जाव पओग-वीससापरिणया वि य णं सामी ! पोग्गला पण्णत्ता। तब जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि अमात्य से दूसरी बार और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा'अहो सुबुद्धि ! यह खाई का पानी अमनोज्ञ है इत्यादि पूर्ववत् / ' तब सुबुद्धि अमात्य ने जितशत्रु के दूसरी बार और तीसरी बार ऐसा कहने पर इस प्रकार कहा—'स्वामिन् ! मुझे इस खाई के पानी के विषय में इसके मनोज्ञ या अमनोज्ञ होने में कोई विस्मय नहीं है। क्योंकि शुभ शब्द के पुद्गल भी अशुभ रूप में परिणत हो जाते हैं, इत्यादि पहले के समान सब कथन यहाँ समझ लेना चाहिए, यावत् मनुष्य के प्रयत्न से और स्वाभाविक रूप से भी पुद्गलों में परिणमन होता रहता है। ऐसा (जिनागम में) कहा है। १४-तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धि अमच्चं एवं वयासी-मा णं तुम देवाणुप्पिया ! अप्पाणं च परं च तदुभयं च बहूहि य असम्भावुब्भावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसेण य बुग्गाहेमाणे बुप्पाएमाणे विहराहि। तत्पश्चात् जितशत्र राजा ने सुबुद्धि अमात्य से इस प्रकार कहा--देवानुप्रिय ! तुम अपने आपको, दूसरे को और स्व-पर दोनों को असत् वस्तु या वस्तुधर्म की उद्भावना करके अर्थात् असत् को सत् के रूप में प्रकट करके और मिथ्या अभिनिवेश (दुराग्रह) करके भ्रम में मत डालो, अज्ञानियों को ऐसी सीख न दो। १५-तए णं सुबुद्धिस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-'अहो णं जितसत्तू संते तरचे तहिए अवितहे सबभते जिणपण्णसे भाव णो उवलभइ, तं सेयं खलु मम जियसत्तस्स रण्णो संताणं तच्चाणं तहियाणं अवितहाणं सन्भूताणं जिणपण्णत्ताणं भावाणं अभिगमणट्टयाए एयमलैं उवाइणावेत्तए।' जितशत्रु की बात सुनने के पश्चात् सुबुद्धि को इस प्रकार का अध्यवसाय-विचार उत्पन्न हुअा-अहो ! जितशत्रु राजा सत् (विद्यमान), तत्त्वरूप (वास्तविक), तथ्य(सत्य), अवितथ(अमिथ्या) और सद्भूत (विद्यमान स्वरूप वाले) जिन भगवान् द्वारा प्ररूपित भावों को नहीं जानता नहीं अंगीकार करता / अतएव मेरे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि मैं जितशत्रु राजा को सत्, तत्त्वरूप, तथ्य, अवितथ और सद्भूत जिनेन्द्रप्ररूपित भावों (अर्थों) को समझाऊँ और इस बात को अंगीकार कराऊँ। १६--एवं संपेहेइ, संपेहिता पच्चइएहिं पुरिसेहिं सद्धि अंतरावणाओ नवए घडए पडए य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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