SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 320 ] [ ज्ञाताधर्मकथा करके राजा ने अपना कथन वार-बार दोहराया तो उसने भी वही कहा जो स्वादु भोजन के संबंध में कहा था। ___ इस बार राजा ने सुबुद्धि के कथन का अनादर करते हुए कहा-सुबुद्धि ! तुम्हारी बात मिथ्या है / तुम दुराग्रह के शिकार हो रहे हो और दूसरों को ही नहीं, अपने को भी भ्रम में डाल रहे हो। सुबुद्धि को राजा की दुर्बुद्धि पर दया आई / उसने विचार किया-राजा सत्य पर श्रद्धा नहीं करता, यही नहीं वरन् सत्य को असत्य मानकर मुझे भ्रम में पड़ा समझता है / इसे किसी उपाय से सन्मार्ग पर लाना चाहिए / इस प्रकार विचार कर उसने पूर्वोक्त परिखा का पानी मंगवाया और विशिष्ट विधि से 49 दिनों में उसे अत्यन्त शुद्ध और स्वादिष्ठ बनाया / उस विधि का विस्तृत वर्णन मूल पाठ में किया गया है / यह स्वादिष्ठ पानी जब राजा के यहाँ भेजा गया और उसने पीया तो उस पर लटू हो गया। पानी वाले सेवक से पूछने पर उसने कहा-यह पानी अमात्य जी के यहाँ से पाया है / अमात्य ने निवेदन किया-स्वामिन् ! यह वही परिखा का पानी है, जो आपको अत्यन्त अमनोज्ञ प्रतीत हुआ था। राजा ने स्वयं प्रयोग करके देखा / सुबुद्धि का कथन सत्य सिद्ध हुआ। तब राजा ने सुबुद्धि से पूछा--सुबुद्धि ! तुम्हारी बात वास्तव में सत्य है पर यह तो बताओ कि यह सत्य, तथ्य, यथार्थ तत्त्व तुमने कैसे जाना? तुम्हें किसने बतलाया ? सुबुद्धि ने उत्तर दिया-स्वामिन् ! इस सत्य का परिज्ञान मुझे जिन भगवान् के वचनों से हुआ है / वीतराग वाणी से ही मैं इस सत्य तत्त्व को उपलब्ध कर सका हूँ। राजा जिनवाणी श्रवण करने की अभिलाषा प्रकट करता है, सुबुद्धि उसे चातुर्याम धर्म का स्वरूप समझाता है, राजा भी श्रमणोपासक बन जाता है / एक बार स्थविर मुनियों का पुनः चम्पा में पदार्पण हुा / धर्मोपदेश श्रवण कर सुबुद्धि अमात्य प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा से अनुमति मांगता है। राजा कुछ समय रुक जाने के लिए और फिर साथ ही दीक्षा अंगीकार करने के लिए कहता है / सुबुद्धि उसके कथन को मान लेता है। बारह वर्ष बाद दोनों संयम अंगीकार करके अन्त में जन्म-मरण की व्यथाओं से सदा-सदा के लिए मुक्त हो जाते हैं। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy