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________________ नवम अध्ययन : माकन्दी ] {307 साथ रोते-रोते (जिनरक्षित संबंधी) बहुत से लौकिक मृतककृत्य किये। मृतककृत्य करके वे कुछ समय बाद शोक रहित हुए। ६३--तए णं जिणपालियं अन्नया कयाइ सुहासणवरगयं अम्मापियरो एवं वयासी--'कहं णं युत्ता ! जिणरक्खिए कालगए?' तत्पश्चात् एक बार किसी समय सुखासन पर बैठे जिनपालित से उसके माता-पिता ने इस प्रकार प्रश्न किया---'हे पुत्र ! जिनरक्षित किस प्रकार कालधर्म (मृत्यु) को प्राप्त हुआ ?' ६४-तए णं जिणपालिए अम्मापिऊणं लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवाय-समुत्थणं च पोयवहणवित्ति च फलगखंडआसायणं च रयणदीवुत्तारं च रयणदीवदेवयागिह' च भोगविभूई च रयणदीवदेवयाघायणं च सूलाइयपुरिसदरिसणं च सेलगजक्खआरहणं च रयणदीवदेवयाउवसग्गं च जिगरक्खियवित्ति च लवणसमुद्दउत्तरणं च चंपागमणं च सेलगजक्खआपुच्छणं च जहाभूयमवितहमसंदिद्धं परिकहेइ। __ तब जिनपालित ने माता-पिता से अपना लवणसमुद्र में प्रवेश करना, तूफानी हवा का उठना, पोतवहन का नष्ट होना, पटिया का टुकड़ा मिलना, रत्नद्वीप में जाना, रत्नद्वीप की देवी के घर जाना, वहाँ के भोगों का वैभव, रत्नद्वीप की देवी के वधस्थान पर जाना, शूली पर चढ़े पुरुष को देखना, शैलक यक्ष की पीठ पर आरूढ होना, रत्नद्वीप की देवी द्वारा उपसर्ग होना, जिनरक्षित का मरण होना, लवणसमुद्र को पार करना, चम्पा में आना और शैलक यक्ष के द्वारा छुट्टी लेना, ग्रादि सर्व वृत्तान्त ज्यों का त्यों, सच्चा और असंदिग्ध कह सुनाया। ६५–तए णं जिणपालिए जाव अप्पसोगे जाव विउलाई भोगभोगाई भुजमाणे विहरइ। तब जिनपालित यावत् शोकरहित होकर यावत् विपुल कामभोग भोगता हुअा रहने लगा / ६६-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव समोसढे / परिसा निग्गया। कृणिओ वि राया निग्गओ। जिणपालिए धम्म सोच्चा पन्यइए / एक्कारसअंगविऊ, मासिएणं भत्तेणं जाव सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने, दो सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, जाव महाविदेहे सिज्झिहिइ / उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर, जहाँ चम्पा नगरी थी और जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ पधारे / भगवान् को बन्दना करने के लिए परिषद् निकली / कूणिक राजा भी निकला / जिनपालित ने धर्मोपदेश श्रवण करके दीक्षा अंगीकार की। क्रमशः ग्यारह अंगों का ज्ञाता होकर, अन्त में एक मास का अनशन करके यावत् सौधर्म कल्प में देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ दो सागरोपम की उसकी स्थिति कही गई है। वहाँ से च्यवन करके यावत् महा-विदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्धि प्राप्त करेगा। 1. पाठान्तर-गिण्हणं / 2. पाठान्तर-देवधाप्पाहणं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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