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________________ नवम अध्ययन : माकन्दी] [ 301 अतत्था अणुव्विग्गा अक्खभिया असंभंता रयणद्दीवदेवयाए एयमद्वं नो आदति, नो परियाणंति, नो अवेक्खंति, अणाढायमागा अपरियाणमाणा अणवेक्खमाणा सेलएण जक्खेण सद्धि लवणसमुई मज्झंमज्झेणं वीइवयंति। उस समय वे माकन्दीपुत्र रत्नद्वीप की देवी के इस कथन को सुनकर और हृदय में धारण करके भयभीत नहीं हुए, त्रास को प्राप्त नहीं हुए, उद्विग्न नहीं हुए, संभ्रान्त नहीं हुए। अतएव उन्होंने रत्नद्वीप की देवी के इस अर्थ का आदर नहीं किया, उसे अंगीकार नहीं किया, उसकी पर्वाह नहीं की। वे अादर न करते हुए शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के मध्य में होकर चले जाने लगे। विवेचन-शैलक यक्ष ने माकंदीपुत्रों को पहले ही समझा दिया था कि रत्नदेवी के कठोरकोमल वचनों उसकी धमकियों या ललचाने वाली बातों पर ध्यान न देना, परवाह न करना अतएव वे उसकी धमकी सुनकर भी निर्भय रहे / ४६---तए णं सा रयणद्दीवदेवया ते मागंदिया जाहे नो संचाएइ बहूहि पडिलोमेहि य उवसग्गेहि य चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा लोभित्तए वा ताहे महुरेहि सिंगारेहि य कलुणेहि य उवसग्गेहि य उवसग्गेउं पयत्ता यावि होत्था ह भो मागंदियदारगा! जइ णं तुभेहि देवाणुप्पिया ! मए सद्धि हसियाणि य, रमियाणि य, ललियाणि य, कीलियाणि य, हिडियाणि य, मोहियाणि य, ताहे णं तुम्भे सव्वाइं अगणेमाणा ममं विप्पजहाय सेलएणं सद्धि लवणसमुई मज्झमज्झेणं वीइवयह ?' तत्पश्चात् वह रत्नद्वीप की देवी जब उन माकंदीपुत्रों को बहुत-से प्रतिकूल उपसर्गों द्वारा चलित करने, क्षुब्ध करने, पलटने और लुभाने में समर्थ न हुई, तब अपने मधुर शृगारमय और अनुराग-जनक अनुकूल उपसर्गों से उन पर उपसर्ग करने में प्रवृत्त हुई। देवी कहने लगी—'हे माकंदीपुत्रो ! हे देवानुप्रियो ! तुमने मेरे साथ हास्य किया है, चौपड़ ग्रादि खेल खेले हैं. मनोवांछित क्रीडा की है. क्रीडित मला आदि झल कर मनोरं उद्यान आदि में भ्रमण किया है और रतिक्रीडा की है। इन सब को कुछ भी न गिनते हुए, मुझे छोड़कर तुम शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के मध्य में होकर जा रहे हो ?' ४७-तए णं सा रयणदीवदेवया जिणरक्खियस्स मणं ओहिणा आभोएइ, आभोएत्ता एवं वयासी—'णिच्चं पि य णं अहं जिनपालियस्स अणिट्ठा, अकंता, अप्पिया, अमणुण्णा, अमणामा, णिच्चं मम जिणपालिए अणिठे अकते, अप्पिए, अमणुष्णे, अमणामे / णिच्चं पि य णं अहं जिणरक्खियस्स इट्ठा, कता, पिया, मणुण्णा, मणामा, णिच्चं पि य णं ममं जिणरक्खिए इठे कंते, पिए, मणुण्णे, मणामे / जइ णं मम जिणयालिए रोयमाणि कंदमाणि सोयमाणि तिप्पमाणि विलक्माणि णावयक्खइ, कि णं तुम जिणरक्खिया! ममं रोयमाणि जाव णावयक्खसि ?' तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने जिनरक्षित का मन अवधिज्ञान से (कुछ शिथिल) देखा। यह देखकर वह इस प्रकार कहने लगी---मैं सदैव जिनपालित के लिए अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम थी और जिनपालित मेरे लिए अनिष्ट, अकान्त आदि था, परन्तु जिनरक्षित को तो मैं सदैव इष्ट, कान्त, प्रिय आदि थी और जिनरक्षित मुझे भी इष्ट, कान्त, प्रिय प्रादि था / अतएव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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