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________________ 296 ] [ ज्ञाताधर्मकथा वचनादेश से लवणाधिपति सुस्थित ने मुझे समुद्र की स्वच्छता के कार्य में नियुक्त किया है। यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में मत जाना। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे शरीर का विनाश हो जाय / तो इसमें कोई कारण होना चाहिए। अतएव हमें दक्षिण दिशा के वनखण्ड में भी जाना चाहिए।' इस प्रकार कह कर उन्होंने एक दूसरे के इस विचार को स्वीकार किया। स्वीकार करके उन्होंने दक्षिण दिशा के वनखण्ड में जाने का संकल्प किया रवाना हुए। दक्षिण-वन का रहस्य ३२-तए णं गंधे निद्धाति से जहानामए अहिमडेइ वा जाव' अणिद्वतराए चेव / तए णं ते मार्गदियदारया तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सहि सएहिं उत्तरिज्जेहि आसाइं पिहेंति, पिहिता जेणेव दक्खिणिल्ले वणसंडे तेणेव उवागया। तत्पश्चात् दक्षिण दिशा से दुर्गंध फूटने लगी, जैसे कोई साँप का (गाय का, कुत्ते का, बिल्ली, मनुष्य, महिष, मूसक, अश्व, हस्ती, सिंह, व्याघ्र, भेड़िया या द्वीपिका का) मृत कलेवर हो, यावत् उससे भी अधिक अनिष्ट दुर्गंध आने लगी। तत्पश्चात् उन माकंदीपुत्रों ने उस अशुभ दुर्गंध से घबराकर अपने-अपने उत्तरीय वस्त्रों से मुह ढक लिए / मुंह ढक कर वे दक्षिण दिशा के वनखण्ड में पहुँचे। 33 तत्थ णं महं एगं आधायणं पासंति, पासित्ता अद्रियरासिसतसंकुलं भीमदरिसणिज्जं एगं च तत्थ सूलाइतयं पुरिसं कलुणाई विस्सराई कटाई कुवमाणं पासंति, पासित्ता भीया जाव संजायभया जेणेव से सूलाइयपुरिसे तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता तं सूलाइयं पुरिसं एवं वयासो'एस णं देवाणुप्पिया ! कस्साधायणे ? तुमं च णं के कओ वा इहं हवमागए ? केण वा इमेयारूवं आवई पाविए ?' वहाँ उन्होंने एक बड़ा वधस्थान देखा / देखकर सैकड़ों हाड़ों के समूह से व्याप्त और देखने में भयंकर उस स्थान पर शूली पर चढ़ाये हुए एक पुरुष को करुण, विरस और कष्टमय शब्द करते देखा / उसे देखकर वे डर गये। उन्हें बडा भय उत्पन्न हया। फिर वे जहाँ शली पर चढाया पुरुष था, वहाँ पहुँचे और शूली पर चढ़े पुरुष से इस प्रकार बोले-'हे देवानुप्रिय ! यह वधस्थान किसका है ? तुम कौन हो ? किसलिए यहाँ आये थे? किसने तुम्हें इस विपत्ति में डाला है ?' ३४–तए णं से सूलाइयपुरिसे मागंदियदारए एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! रयणद्दीवदेवयाए आघायणे, अहण्णं देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवाओ भारहाओ वासाओ कागंदीए आसवाणियए विपुलं पडियभंडमायाए पोतवहणेणं लवणसमुदं ओयाए। तए णं अहं पोयवहणविवत्तीए निब्बुड्डुभंडसारे एग फलगखंडं आसाएमि / तए णं अहं उवुज्झमाणे उवुज्झमाणे रयणदीवंतेणं संबूढे / तए णं सा रयणद्दीवदेवया ममं ओहिणा पासइ, पासित्ता ममं गेण्हइ, गेण्हित्ता भए सद्धि विपुलाई भोगभोगाई भुजमाणी विहरइ / तए णं सा रयणद्दीवदेवया अन्नया कयाई अहालहुसगंसि अवराहसि परिकुविया समाणी ममं एयारूवं आवई पावेइ / तं ण णज्जइ णं देवाणुप्पिया ! तुम्हं पि इमेसि सरारगाणं का मण्णे आवई भविस्सइ ?' 1. अष्टम प्र. 36 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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