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________________ 294 ] | ज्ञाताधर्मकथा उसकी उज्ज्वल वेला-ज्वार है / उसमें जो शीतल और सुरभित पवन है, वही मगरों का विचरण है। २६-जइ णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! तत्थ वि उम्विग्गा उस्सुया भवेज्जाह, तओ तुब्भे जेणेव पासायडिसए तेणेव उवागच्छेज्जाह, उवाच्छित्ता ममं पडिवालेमाणा पडिवालेमाणा चिठेज्जाह / मा णं तुम्भे दक्खिणिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह / तत्थ णं महं एगे उग्गविसे चंडविसे घोरविसे महाविसे अइकाय-महाकाए। जहा तेयनिसग्गे-मसि-महिस-मूसाकालए नयणविसरोसपुण्णे अंजणपुजनियरप्पगासे रत्तच्छे जमलजयलचंचलचलंतजीहे धरणियलवेणिभूए उक्कड-फूड-कुडिल-जडिल-कक्खड-वियड-फडाडोवकरणदच्छे लोहागार-धम्ममाण-धमधमेंतघोसे अणागलियचंड-तिव्वरोसे समुहियं तुरियं चवलं धमधमंतदिट्ठीविसे सप्पे य परिवसइ / मा णं तुभं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ। देवानुप्रियो ! यदि तुम वहाँ भी ऊब जाओ या उत्सुक हो जायो तो इस उत्तम प्रासाद में ही आ जाना। यहाँ आकर मेरी प्रतीक्षा करते-करते यहीं ठहरना / दक्षिण दिशा के वनखण्ड की तरफ मत चले जाना। दक्षिण दिशा के वनखण्ड में एक बड़ा सर्प रहता है / उसका विष उग्र अर्थात् दुर्जर है, प्रचंड अर्थात शीघ्र ही फैल जाता है, घोर है अर्थात् परम्परा से हजार मनुष्यों का घातक है, उसका विष महान है अर्थात् जम्बूद्वीप के बराबर शरीर हो तो उसमें भी फैल सकता है, अन्य सब सौ से उसका शरीर बड़ा है। इस सर्प के अन्य विशेषण 'जहा तेयनिसग्गे' अर्थात् गोशालक के वर्णन में कहे अनुसार जान लेना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-बह काजल, भैंस और कसौटी-पाषाण के समान काला है, नेत्र के विष से और क्रोध से परिपूर्ण है। उसकी प्राभा काजल के ढेर के समान काली है। उसकी आँखें लाल हैं / उसकी दोनों जीभे चपल एवं लपलपाती रहती हैं / वह पृथ्वी रूपी स्त्री की वेणी के समान (काला चमकदार और पृष्ठ भाग में स्थित) है / वह सर्प उत्कट—अन्य बलवान् के द्वारा भी न रोका जा सकने योग्य, स्फुट-प्रयत्न-कृत होने के कारण प्रकट, कुटिल-वक्र, जटिल-सिंह की अयाल के सदृश, कर्कश-कठोर और विकट-विस्तार वाला, फटाटोप करने (फण फैलाने) में दक्ष है / लोहार की भट्टी में धौंका जाने वाला लोहा जैसे धम-धम शब्द करता है, उसी प्रकार वह सर्प भी ऐसा / ऐसा ही 'धम-धम' शब्द करता रहता है। उसके प्रचंड एवं तीन रोष को कोई रोक नहीं सकता। कुत्ती के झौंकने के समान शीघ्रता एवं चपलता से वह धम्-धम् शब्द करता रहता है। उसकी दृष्टि में विष है, अर्थात वह जिसे देख ले, उसी पर उसके विष का असर हो जाता है / अतएव कहीं ऐसा न हो कि तुम वहाँ चले जायो और तुम्हारे शरीर का विनाश हो जाय। 27 ते मागंदियदारए दोच्चं पि तच्चं पि एवं वदइ, वदित्ता वेउब्धियसमुग्धाएणं समोहणइ, समोहणित्ता ताए उक्किट्ठाए देवगईए लवणसमुई तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टेउं पयत्ता यावि होत्था। रत्नद्वीप की देवी ने यह बात दो वार और तीन बार उन माकंदीपुत्रों से कही / कहकर उसने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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