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________________ 290] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् वे दोनों माकन्दीपुत्र (जिनपालित और जिनरक्षित) पटिया के सहारे तिरते-तिरते रत्नद्वीप के समीप आ पहुँचे।। १५---तए णं ते मागंदियदारगा थाहं लभंति, लभित्ता मुहत्तंतरं आससंति, आससित्ता फलगखंडं विसज्जेंति, विसज्जित्ता रयणद्दीवं उत्तरंति, उत्तरित्ता फलाणं मग्गणगवेसणं करेंति, करित्ता फलाइं गेण्हंति, गेण्हित्ता आहारति, आहारित्ता णालिएराणं मग्गणगवेसणं करेंति, करिता नालिएराई फोडेंति, फोडित्ता नालिएरतेल्लेणं अण्णमण्णस्स गत्ताइं अभंगति, अभंगित्ता पोक्खरणीओ ओगाहिति, ओगाहित्ता जलमज्जणं करेंति, करित्ता जाव पच्चुत्तरंति, पच्चुत्तरित्ता पुढविसिलापट्टयंसि निसीयंति, निसीइत्ता आसत्था वोसत्था सुहासणवरगया चंपानार अम्मापिउआपुच्छणं च लवणसमुद्दोत्तारं च कालियवायसमुत्थणं च पोयवहणवित्ति च फलयखंडस्स आसायणं च रयणदीवुत्तारं च अचितेमाणा अणुचितेमाणा ओहयमणसंकप्पा जाव (करतलपल्हथमुहा अट्टज्झाणोवगया) झियाएंति / तत्पश्चात् उन माकन्दीपुत्रों को थाह मिली / थाह पाकर उन्होंने घड़ी भर विश्राम किया / विश्राम करके पटिया के टुकड़े को छोड़ दिया। छोड़कर रत्नद्वीप में उतरे। उतरकर फलों की मार्गणा-गवेषणा (खोज-ढूढ़) की फिर फलों को ग्रहण किया। ग्रहण करके फल खाये / फिर उनके तेल से दोनों ने आपस में मालिश की। मालिश करके वावड़ी में प्रवेश किया। प्रवेश करके स्नान किया। स्नान करके वावड़ी से बाहर निकले / एक पृथ्वीशिला रूपी पाट पर बैठे / बैठकर शान्त हुए, विश्राम लिया और श्रेष्ठ सुखासीन पर आसीन हुए। वहाँ बैठे-बैठे चम्पा नगरी, माता-पिता से आज्ञा लेना, लवण-समुद्र में उतरना, तूफानी वायु का उत्पन्न होना, नौका का भग्न होकर डूब जाना, पटिया का टकडा मिल जाना और अन्त में रत्नद्वीप में प्राना, इन सब बातों का बार-बार विचार करते हुए भग्नमनःसंकल्प होकर हथेली पर मुख रखकर प्रार्तध्यान में-चिन्ता में डूब गये। १६-तए णं सा रयणद्दीवदेवया ते मागंदियदारए ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता असिफलग-वग्ग-हत्था सत्तटठतालप्पमाणं उडढं बेहासं उप्पयड, उप्पइत्ता ताए उक्किटठाए जा वोइवयमाणी वीइवयमाणी जेणेव मागंदियदारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आसुरुत्ता मागं. दियदारए खर-फरस-निठुरवयणेहिं एवं वयासी-- तत्पश्चात उस रत्नद्वीप की देवी ने उन माकन्दीपुत्रों को अवधिज्ञान से देखा / देखकर उसने हाथ में ढाल और तलवार ली। सात-आठ ताड़ जितनी ऊँचाई पर आकाश में उड़ी। उड़कर उत्कृष्ट (तीव्रतम) यावत् देवगति से चलती-चलती जहाँ माकन्दीपुत्र थे, वहाँ आई / पाकर एकदम कुपित हुई और माकन्दीपुत्रों को तीखे, कठोर और निष्ठुर वचनों से इस प्रकार कहने लगी देवी द्वारा धमकी १७---'हं भो मागंदियदारगा! अप्पत्थियपत्थिया ! जइ णं तुब्भे मए सद्धि विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणा विहरह, तो भे अस्थि जीवियं, अहण्णं तुब्भे मए सद्धि विउलाई भोगभोगाई भुजमाणा नो विहरह, तो भे इमेणं नीलुप्पल-गवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पगासेणं खुरधारेणं असिणा रत्तगंडमंसुयाई माउयाहि उवसोहियाई तालफलाणि व सोसाइं एगंते एडेमि / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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