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________________ 288] [ ज्ञाताधर्मकथा जल के तीक्ष्ण वेग से बार-बार टकराने लगी, हाथ से भूतल पर पछाड़ी हुई गेंद के समान जगहजगह नीची-ऊँची होने लगी। जिसे विद्या सिद्ध हुई है ऐसी विद्याधर-कन्या जैसे पृथ्वीतल से ऊपर उछलती है, उसी प्रकार वह ऊपर उछलने लगी और विद्याभ्रष्ट विद्याधरकन्या जैसे आकाशतल से नीचे गिरती है, उसी प्रकार वह नौका भी नीचे गिरने लगी। जैसे महान् गरुड़ के वेग से त्रास पाई नाग की उत्तम कन्या भय की मारी भागती है, उसी प्रकार वह भी इधर-उधर दौड़ने लगी। जैसे अपने स्थान से बिछड़ी हुई बछेरी बहुत लोगों के (बड़ी भीड़ के) कोलाहल से त्रस्त होकर इधर-उधर भागती है, उसी प्रकार वह भी इधर-उधर दौड़ने लगी। माता-पिता के द्वारा जिसका अपराध (दुराचार) जान लिया गया है, ऐसी सज्जन पुरुष के कुल की कन्या के समान नीचे नमने लगी / तरंगों के सैकड़ों प्रहारों से ताड़ित होकर वह थरथराने लगी / जैसे बिना आलंबन की वस्तु आकाश से नीचे गिरती है, उसी प्रकार वह नौका भी नीचे गिरने लगी। जिसका पति मर गया हो ऐसी नवविवाहिता वधू जैसे आँसू बहाती है, उसी प्रकार पानी से भीगी ग्रंथियों (जोड़ों) में से झरने वाली जलधारा के कारण वह नौका भी अश्रुपात-सा करती प्रतीत होने लगी।परचक्री (शत्रु) राजा के द्वारा अवरुद्ध (घिरी) हुई और इस कारण घोर महाभय से पीड़ित किसी उत्तम महानगरी के समान वह नौका विलाप करती हुई-सी प्रतीत होने लगी। कपट (वेषपरिवर्तन) से किये प्रयोग (परवंचना रूप व्यापार) से युक्त, योग साधने वाली परिवाजिका जैसे ध्यान करती है, उसी प्रकार वह भी कभी-कभी स्थिर हो जाने के कारण ध्यान करती-सी जान पड़ती थी। किसी बड़े जंगल में से चलकर निकली हुई और थकी हुई बड़ी उम्र वाली माता (पुत्रवती स्त्री) जैसे हांफती है, उसी प्रकार वह नौका भी निश्वास-से छोड़ने लगी, या नौकारूढ लोगों के निश्वास के कारण नौका भी निश्वास छोडती-सी दिखाई देने लगी / तपश्चरण के फलस्वरूप प्राप्त स्वर्ग के भोग क्षीण होने पर जैसे श्रेष्ठ देवी अपने च्यवन के समय शोक करती है, उसी प्रकार वह नौका भी शोक-सा करने लगी, अर्थात् नौका पर सवार लोग शोक करने लगे। उसके काष्ठ और मुखभाग चूर-चूर हो गये / उसको मेढ़ी' भंग हो गई और माल' सहसा मुड़ गई, या सहस्रों मनुष्य की आधारभूत माल मुड़ गई / वह नौका पर्वत के शिखर पर चढ़ जाने के कारण ऐसी मालम होने लगी मानो शूली पर चढ़ गई हो / उसे जल का स्पर्श वक्र (बांका) होने लगा, अर्थात नौका बांकी हो गयी। एक दूसरे के साथ जुडे पाटियों में तडहोने लगा-उनके जोड़ टूटने लगे, लोहे की कीलें निकल गईं, उसके सब भाग अलग-अलग हो गये। उसके पटियों के साथ बँधी रस्सियां गीली होकर (गल कर) टूट गईं अतएव उसके सब हिस्से बिखर गये / वह कच्चे सिकोरे जैसी हो गई-पानी में विलीन हो गई / अभागे मनुष्य के मनोरथ के समान वह अत्यन्त चिन्तनीय हो गई। नौका पर आरूढ कर्णधार, मल्लाह, वणिक् और कर्मचारी हाय-हाय करके विलाप करने लगे। वह नाना प्रकार के रत्नों और मालों से भरी हुई थी। इस विपदा के समय सैकड़ों मनुष्य रुदन करने लगे-रुदन शब्द के साथ अश्रुपात करने लगे, आक्रन्दन करने लगे, शोक करने लगे, भय के कारण पसीना झरने लगा, वे विलाप करने लगे, अर्थात् प्रार्तध्वनि करने लगे। उसी समय जल के भीतर विद्यमान एक बड़े पर्वत के शिखर के साथ टकरा कर नौका का मस्तूल और तोरण भग्न हो गया और ध्वजदंड मुड़ गया। नौका के वलय जैसे सैकड़ों टुकड़े हो गये। वह नौका 'कड़ाक' का शब्द करके उसी जगह नष्ट हो गई, अर्थात् डूब गई। 1. एक बड़ा और मोटा लट्ठा जो सब पटियों का प्राधार होता है / 2. मनुष्यों के बैठने का ऊपरी भाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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