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________________ 274] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर कहा- 'शीघ्र ही एक हजार आठ सुवर्णकलश यावत् [एक हजार आठ रजत-कलश, इतने ही स्वर्ण-रजतमय कलश, मणिमय कलश, स्वर्ण-मणिमय कलश रजत-मणिमय कलश, और स्वर्ण-मणिमय कलश, और एक हजार पाठ मिट्टी के कलश लाओ। उसके अतिरिक्त महान् अर्थ वाली यावत् [महान् मूल्य वाली, महान जनों के योग्य और विपुल ] तीर्थकर के अभिषेक की सब सामग्री उपस्थित करो। यह सुनकर कौटुम्विक पुरुषों ने वैसा ही किया, अर्थात् अभिषेक की समस्त सामग्री तैयार कर दी। १६८--तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरे असुरिंदे जाव अच्चुयपज्जवसाणा आगया / उस काल और उस समय चमर नामक असुरेन्द्र से लेकर अच्युत स्वर्ग तक के सभी इन्द्र अर्थात् चौंसठ इन्द्र वहाँ आ पहुँचे / १६९-तए णं सक्के देविदे देवराया आभिओगिए देवे सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-- 'खिप्पामेव अट्ठसहस्सं सोवष्णियाणं कलसाणं जाव अण्णं च तं विउलं उवट्ठवेह / ' जाव उवट्ठति / तेवि कलसा ते चेव कलसे अणुपविट्ठा। तब देवेन्द्र देवराज शक्र ने अाभियोगिक देवों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा---'शीघ्र ही एक हजार आठ स्वर्णकलश आदि यावत् दूसरी अभिषेक के योग्य सामग्री उपस्थित करो।' यह सुन कर आभियोगिक देवों ने भी सब सामग्री उपस्थित की। वे देवों के कलश उन्हीं मनुष्यों के कलशों में (दैवी माया से) समा गये।। १७०-तए णं से सक्के देविदे देवराया कुभराया य मल्लि अरहं सोहासणंसि पुरत्याभिमुहं निवेसेइ, अट्ठसहस्सेणं सोवणियाणं जाव अभिसिंचइ।। तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक्र और कुम्भ राजा ने मल्ली अरहन्त को सिंहासन के ऊपर पूर्वाभिमुख आसीन किया / फिर सुवर्ण आदि के एक हजार आठ पूर्वोक्त कलशों से यावत् उनका अभिषेक किया। १७१–तए णं मल्लिस्स भगवओ अभिसेए वट्टमाणे अप्पेगइया देवा मिहिलं च सभितरं बाहिरियं जाव सव्वओ समंता आधावंति परिधावति / तत्पश्चात् जव मल्ली भगवान् का अभिषेक हो रहा था, उस समय कोई-कोई देव मिथिला नगरी के भीतर और बाहर यावत् सब दिशाओं-विदिशाओं में दौड़ने लगे—इधर-उधर फिरने लगे। १७२-तए णं कुभए राया दोच्चं पि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयावेइ जाव सवालंकारविभूसियं करेइ, करित्ता कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ। सहावित्ता एवं वयासो- 'खिप्पामेव मणोरमं सीयं उवट्ठवेह / ' ते वि उवट्ठति / तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने दूसरी बार उत्तर दिशा में सिंहासन रखवाया यावत् भगवान् मल्ली को सर्व अलंकारों से विभूषित किया / विभूषित करके कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-शीघ्र ही मनोरमा नाम की शिविका (तैयार करके) लायो।' कौटुम्बिक पुरुष मनोरमा शिविका-पालकी ले आए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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