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________________ आठवाँ अध्ययन : मल्ली] 263 संकल्प क्षीण हो गया, यावत् वह हथेली पर मुख" रेखकर प्रातध्यान करने लगा-चिन्ता में डूब गया। मल्ली कुमारी द्वारा चिन्ता सम्बन्धी प्रश्न १३४-इमं च णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना व्हाया जाव बहूहि खुज्जाहिं परिबुडा जेणेव कुभए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागचिछत्ता कुंभगस्स पायग्गहणं करेइ / तए णं कुभए राया मल्लि विदेहरायवरकन्नं णो आढाइ, नो परियाणाइ, तुसिणीए संचिट्ठइ / इधर विदेहराजवरकन्या मल्ली ने स्नान किया, (वस्त्राभूषण धारण किये) यावत् बहुत-सी कुब्जा आदि दासियों से परिवृत होकर जहाँ कुभ राजा था, वहाँ आई / आकर उसने कुभ राजा के चरण ग्रहण किये-पैर छए / तब कभ राजा ने विदेहराजवरकन्या मल्ली का श्रादर (स्वागत किया, अत्यन्त गहरी चिन्ता में व्यग्र होने के कारण उसे उसका पाना भी मालूम नहीं हुआ, अतएव वह मौन ही रहा। १३५--तए णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना कभयं रायं एवं वयासो! 'तुब्भे णं ताओ ! अण्णया मम एज्जमाणं जाव' निवेसेह, किं णं तुभं अज्ज ओयमणसंकप्पे जाव' झियायह ?' तए णं कुभए राया मल्लि विदेहरायवरकन्नं एवं वयासी—'एवं खलु पुत्ता! तव कज्जे जियसत्तुपामोक्खेहि छहिं राहि दूया संपेसिया, ते णं मए असक्कारिया जाव' णिच्छूढा / तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा तेसिं दूयाणं अंतिए एयमझें सोच्चा परिकुविया समाणा मिहिलं रायहाणि निस्संचारं जाव' चिट्ठन्ति / तए णं अहं पुत्ता! तेसि जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं अंतराणि अलभमाणे जाव' झियामि / ' तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने राजा कुभ से इस प्रकार कहा–'हे तात ! दूसरे / समय मुझे आती देखकर आप यावत् मेरा आदर करते थे, प्रसन्न होते थे, गोद में बिठलाते थे, परन्तु क्या कारण है कि आज आप अवहत मानसिक संकल्प वाले होकर चिन्ता कर रहे हैं ?' तब राजा कुम्भ ने विदेहराजवरकन्या मल्ली से इस प्रकार कहा---'हे पुत्री ! इस प्रकार तुम्हारे लिए-तुम्हारी मँगनी करने के लिए जितशत्रु प्रभृति छह राजाओं ने दूत भेजे थे। मैंने उन दूतों को अपमानित करके यावत् निकलवा दिया। तब वे जितशत्रु वगैरह राजा उन दूतों से यह वृत्तान्त सुनकर कुपित हो गये। उन्होंने मिथिला राजधानी को गमनागमनहीन बना दिया है, यावत् चारों ओर घेरा डालकर बैठे हैं / अतएव हे पुत्री ! मैं उन जितशत्रु प्रभृति नरेशों के अन्तर—छिद्र आदि न पाता हुअा यावत् चिन्ता में डूबा हूँ।' चिन्तानिवारण का उपाय १३६-तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना कुभयं रायं एवं वयासी-मा णं तुब्भे ताओ ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह, तुन्भे णं ताओ ! तेसि जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं पत्तेयं पत्तेयं रहसियं दूयसंपेसे करेह, एगमेगं एवं वयह –'तव देमि मल्लि विदेहरायवरकन्नं, ति कटु संझाकाल१-२. प्रथम अ. 60 3. अष्टम अ. 125 4-5 अष्टम् अ. 133 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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