SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आठवां अध्ययन : मल्ली ] [219 करके नौ उपवास करे, करके पाठ उपवास करे, करके नौ उपवास करे, करके सात उपवास करे, करके आठ उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके सात उपवास करे, करके पाँच उपवास करे, करके छह उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके पांच उपवास करे, करके तीन उपवास करे, करके चार उपवास करे, करके दो उपवास करे, करके. तीन उपवास करे, करके एक उपवास करे, करके दो उपवास करे, करके एक उपवास करे। सब जगह पारणा के दिन सर्वकामगुणित पारणा करके उपवासों का पारणा समझना चाहिए।। विवेचन-सिंह की क्रीडा के समान तप सिंहनिष्क्रीडित कहलाता है / जैसे सिंह चलताचलता पीछे देखता है, इसी प्रकार जिस तप में पीछे के तप की प्रवृत्ति करके प्रागे का तप किया जाता है और इसी क्रम से आगे बढ़ा जाता है, वह सिंहनिष्क्रीडित तप कहलाता है / इस तप की स्थापना अंकों में निम्न प्रकार है १७–एवं खलु एसा खुड्डागसीहनिक्कोलियस्स तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी छहिं मासेहि सत्तहि य अहोरत्तेहिय अहासुत्ता जाव आराहिया भवइ / इस प्रकार इस क्षुल्लक सिंहनिष्क्रीडित तप की पहली परिपाटी छह मास और सात अहोरात्रों में सूत्र के अनुसार यावत पाराधित होती है। (इसमें 154 उपवास और तेतीस पारणा किये जाते हैं।) १८-तयाणंतरं दोच्चाए परिवाडीए चउत्थं करेंति, नवरं विगइवज्जं पारेति / एवं तच्चा वि परिवाडी, नवरं पारणए अलेवाडं पारेति / एवं चउत्था वि परिवाडी, नवरं पारणए आयंबिलेणं पारेंति। तत्पश्चात् दूसरी परिपाटी में एक उपवास करते हैं, इत्यादि सब पहले के समान ही समझ लेना चाहिए / विशेषता यह है कि इसमें विकृति रहित पारणा करते हैं, अर्थात् पारणा में घी, तेल, दूध, दही आदि विगय का सेवन नहीं करते / इसी प्रकार तीसरी परिपाटी भी समझनी चाहिए / इसमें विशेषता यह है कि अलेपकृत (अलेपमिश्रित) से पारणा करते हैं। चौथी परिपाटी में भी ऐसा ही करते हैं किन्तु उसमें आयंबिल से पारणा की जाती है / १९-तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणमारा खुड्डागं सीहनिक्कीलियं तवोकम्मं दोहि संवच्छरेहि अट्ठावीसाए अहोरत्तेहि अहासुत्तं जाव' आणाए आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता थेरे भगवंते बंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी तत्पश्चात् महाबल आदि सातों अनगार क्षुल्लक (लघु) सिंहनिष्क्रीडित तप को (चारों 1. प्र.अ. 196 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003474
Book TitleAgam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages660
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy